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श्री पंचिदिय सूत्र
२. अप्रत्याख्यानीय कषाय : जिस कषाय के उदय से जीव अल्प भी नियम नहीं ले सकता, वह अप्रत्याख्यानीय कषाय कहलाता है ।
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तत्त्वमार्ग के प्रति श्रद्धा होने के बावजूद भी, धर्म में सुख है ऐसी बुद्धि होने पर भी इन कषायों के उदयवाले जीवों में पुद्गलों की ऐसी आसक्ति होती है कि, वे पुद्गलों के प्रति राग का त्याग कर, व्रत- नियमों का स्वीकार नहीं कर सकते ।
अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदयवाले जीव बाह्य तप-त्याग - व्रत - नियम की प्रवृत्ति करें, तो भी उस काल में भी वे त्याग की हुई वस्तुओं के राग या आकर्षण को नहीं छोड़ सकते ।
अनंतानुबंधी के उदय का जब नाश होता है, तब साधक सूक्ष्म पदार्थों का विवेकपूर्वक पर्यालोचन कर सकता है, इस कारण उसे भोगमार्ग दुःखदायक एवं योगमार्ग सुखदायक लगता है । फलतः उसे योगमार्ग में प्रवृत्ति करने की प्रबल इच्छा होती है, फिर भी अप्रत्याख्यानीय-कषाय के उदय के कारण जीव में ऐसा सत्त्व प्रगट नहीं होता कि जिससे वह भावपूर्वक व्रत-नियमों का स्वीकार कर सके ।
पहले कषाय के क्षयोपशमवाले एवं अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदयवाले जीवों के लिए महापुरुषों ने कहा है कि, उनका शरीर संसार में होता है परंतु मन मोक्ष में ही होता है। ऐसी स्थिति होने पर भी अप्रत्याख्यानीय कषाय उसे मोक्षमार्ग के अनन्य कारणभूत ऐसे संयममार्ग में थोड़ी भी प्रवृत्ति नहीं करने देता । इस कषाय के उदयवाले जीव सदाचारी भी हो सकते हैं एवं सप्तव्यसनी भी हो सकते हैं, अल्प आरंभवाले भी हो सकते हैं एवं महाआरंभ, परिग्रह से युक्त भी हो सकते हैं, कभी योगी जैसे भी दिखते हैं और कभी महाभोगी भी हो सकते हैं । संक्षेप में, त्यागी हो या न हो, परन्तु त्याग का परिणाम तो इस कषाय के काल में संभवित हो ही नहीं सकता ।
३. प्रत्याख्यानीय कषाय : प्रत्याख्यान अर्थात् सर्व पापों से निवृत्ति । सर्व पापों की निवृत्ति सर्वविरति धर्म से ही होती है । जो कषाय ऐसे प्रत्याख्यान