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सूत्र संवेदना
इसीलिए ही इन कषायों के उदयवाले जीव कभी सम्यग्दर्शन नाम के आत्मिक गुण को प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक इन कषायों का उदय तीव्र कोटि का होता है, तब तक तो जीव को नाशवंत एवं नकली ऐसे भोगों में ही सुख की अनुभूति होती है । उसके कारण भोग में प्रवृत्ति हो या न हो तो भी ‘भोग ही अच्छे हैं, वे ही सुखकारक हैं', ऐसे संस्कार आत्मा पर पड़ते ही रहते हैं । इन संस्कारों के कारण जब जब भोग की प्राप्ति होती है, तब तब जीव फिर से उसमें आसक्तिपूर्वक प्रवृत्त होता है, पाप बांधता है एवं पुराने संस्कारों को दृढ़ करता है । इस तरह विपर्यास के कारण अनंतकाल तक ये कषाय संसार की परंपरा का सर्जन करते रहते हैं । इसीलिए उन्हें अनंत-अनुबंधी कहते हैं।
'तथाभव्यत्व' के परिपाक एवं जीव के अमुक प्रकार के पुरुषार्थ से ये कषाय जब मंद पड़ते हैं, तब जीव कुछ अंशों में आत्मा के अभिमुख होने का प्रयत्न करता है, सच्चे सुख को खोजता है, भोग में दुःख है, ऐसा आंशिक अनुभव करता है एवं गुण में सुख है ऐसा सामान्य से भी उसे ज्ञान होता है और तब यह जीव मित्रादि योगदृष्टियों में प्रवेश करता है । तब भी मंद हुए ये कषाय तत्त्व की पूर्ण श्रद्धा तो नहीं ही होने देते ।
गुरु भगवंत इन कषायों से पूर्ण मुक्त होते हैं । तत्त्व के प्रति उनकी श्रद्धा मेरु पर्वत जैसी अडिग होती है । इसलिए वे तत्त्वमार्ग पर चलते हैं
और अनेक लोगों को सुखकारक तथा कल्याणकारक तत्त्वमार्ग को बताने का पुरुषार्थ करते हैं ।
6. तथाभव्यत्व - उन - उन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को पाकर मोक्ष में जाने की योग्यता । यह
योग्यता मोक्षरूप काल को जब-जब नजदीक लाए, तब-तब तथाभव्यत्व का परिपाक हुआ
कहलाता है। 7. मित्रादि दृष्टियों की विशेष जानकारी प.पू. हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज के 'श्रीयोगदृष्टि
समुच्चय' नामक ग्रंथ में उपलब्ध है, उसे समझने के लिए इस ग्रंथ का गुरुगम से अभ्यास करना आवश्यक है।