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श्री पंचिदिय सूत्र
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१. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया एवं लोभ. २. अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया एवं लोभ. ३. प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया एवं लोभ.
४. संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ. अनंतानुबंधी आदि चार प्रकार के कषायों का स्वरूप :
१. अनंतानुबंधी कषाय : अनंत संसार के साथ जोडे, ऐसे कषाय को अनंतानुबंधी कषाय कहते हैं । अनंतानुबंधी कषाय का उदय जीव में मिथ्यात्व मोहनीय के उदय को चालू रखता है, जिसके कारण विपर्यास पैदा होता है । विपर्यास अर्थात् वस्तु को उसके वास्तविक स्वरूप से विपरीत मानना । जैसे नन्हें बालक को विपर्यास के कारण जहरीला और मारनेवाला साँप भी, मारनेवाला नहीं लगता; उसी प्रकार इन कषाय के उदयवाले जीवों को विपर्यास के कारण पाँच इन्द्रियों के विषयों में राग जनित पाप प्रवृत्ति मुझे महादुःख देनेवाली है, ऐसा लगता ही नहीं ।
इन कषायों के सहचारी ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय का मुख्य कार्य तत्त्व के प्रति अश्रद्धा तथा कर्तव्य-अकर्तव्य, हेय-उपादेय का अविवेकरूप विपर्यास उत्पन्न करवाना है । वास्तव में जगत् में कोई तत्त्वभूत तथा सारभूत पदार्थ हो, तो वह मोक्ष है, क्योंकि परम सुख मोक्ष से ही मिल सकता है । मोक्ष ही परम आनंद स्वरूप है एवं ऐसे मोक्ष का कारण धर्म है, इसलिए धर्म ही सुख देनेवाला है । परन्तु अनंतानुबंधी कषाय के उदयवाले भोगासक्त जीवों को धर्म ही परम सुख का कारण नहीं लगता । हाँ, जैसे धन कमाने के लिए व्यापारी व्यापार की क्रिया करता है, व्यापार सम्बन्धी अनेक कष्ट सहन करता है, उसी तरह इन कषायों के उदयवाले जीव भी संसार के सुख, देवलोक, वगैरह के लिए थोड़ा बहुत धर्म कर लेते हैं, परन्तु इस धर्म से ही मोक्ष का सुख मिलेगा, आत्मा का आनंद मिलेगा, वैसी तीव्र श्रद्धा, विपर्यास के कारण, इस कषाय के उदय काल में नहीं होती ।