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सूत्र संवेदना
• मुझे किसी भी चीज़ में 'यह अच्छी है... मेरी है... मुझे __ मिल जाए तो अच्छा' ऐसा विचार नहीं करना है। • वस्त्र, पात्र, वसति, शिष्य आदि किसी भी चीज पर मुझे
ममत्व नहीं रखना है । ये चार कषाय आत्मा के कर्मकृत भाव हैं, कर्म के प्रभाव से जीव में ऐसे परिणाम उत्पन्न होते हैं, अविवेकी जीव इन कषायों के वश होकर बहुत कर्म बांधते हैं, जबकि विवेकी इन कषायों के उदय को निष्फल बनाते हैं । जिन्होंने क्षमा, नम्रता, सरलता और संतोष से इन चारों कषायों को वश में कर लिया है, वैसे आचार्य भगवंत चार कषायों से मुक्त हैं । कषाय के प्रकार:
ये कषाय दो प्रकार के हैं - प्रशस्त कषाय एवं अप्रशस्त कषाय । इसमें धर्म की रक्षा के लिए, गुण की वृद्धि के लिए एवं दोषों के नाश के लिए किए गए कषाय को, प्रशस्त कषाय कहते हैं । जैसे कि, संसार, संसार की सामग्री एवं सांसारिक राग को तोड़ने के लिए धर्म, धर्म की सामग्री एवं देव-गुरु के प्रति राग रखना, वह प्रशस्त राग है; क्योंकि यह राग अप्रशस्त ऐसे संसार के राग को तोड़ता है एवं क्षमादि गुणों की वृद्धि करता है । इसी तरीके से धर्म स्थानों या देव-गुरु के प्रति आक्रमण करनेवाले व्यक्ति के प्रति हुआ द्वेष, प्रशस्त द्वेष है । “मेरे गुण प्राप्ति के कारणभूत इन स्थानों का नाश नहीं होना चाहिए".। ऐसा भाव होने से यह द्वेष प्रशस्त है । यह प्रशस्त द्वेष-अप्रशस्त राग एवं द्वेष का नाश करता है। जब तक परम समता की भूमिका प्राप्त न हो, तब तक प्रशस्त कषाय भी जरूरी है, क्योंकि प्रारंभिक भूमिका में कषाय ही कषाय का नाश करते हैं ।
क्रोधादि चार कषाय तीव्र, तीव्रतर, मंद तथा मंदतर आदि अपेक्षा से असंख्य प्रकार के हैं । इन असंख्य भेदों को संक्षेप में चार विभागों में बांटा है।