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सूत्र संवेदना
• मुझे जो कुछ मिला है, वह कर्मकृत है । देव-गुरु की कृपा
का फल है । इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। • महापुरुष अपनी नम्रता और विनय के सहारे ही बहुत विद्या
प्राप्त कर उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं, इसलिए मुझे भी विनय एवं नम्रता के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। 'मैं कुछ हूँ' ऐसा सोचने से मुझे अपने दोष दिखाई नहीं देते । ऐसी मिथ्या सोच का त्याग करने के बाद ही मैं एकाग्रता से आत्म निरीक्षण कर पाऊँगा तथा अपने से गुणवान को महान मानकर उद्धताइ एवं अक्कडता को
अपने वर्तन में से निकाल पाऊँगा ।' माया : जो जैसा नहीं है, वैसा दिखाने की इच्छा माया है । इससे कपट, दगा, छल-वंचना आदि भाव होते हैं । दिल में अलग और बाहर अलग बताने की इच्छा माया के कारण ही होती है । माया के कारण ही जीवन में अनेक प्रकार की वक्रताएँ आती हैं ।
माया भी आत्मा को पीड़ा देती है । वह असत्य, अशील एवं मिथ्याज्ञान की जननी है । मुनि इस माया का नाश करने कभी कुटिलवृत्ति नहीं रखते । उनकी वाणी या वर्तन में किसी को ठगने का या किसी से छलकपट करने का कभी कोई भाव नहीं होता । अपनी किसी बात को छिपाने का भी वे प्रयास नहीं करते । 'मैं अगर गुरु भगवंत को मेरी मनोवृत्तियों का बयान करूँगा, तो वे मेरे लिए हलका अभिप्राय रखेंगे.... मैं उनकी दृष्टि में गिर जाऊँगा' ऐसा भय वे कभी भी नहीं रखते, इसलिए वे वास्तविक अर्थ में शरण का स्वीकार कर पाते हैं । माया से मुक्त रहने के लिए वे चिंतन करते हैं कि, • मैं माया फरूँगा, तो भी ज्ञानी तो मेरी वास्तविकता को
जानते ही हैं । • क्षणिक मान-पान को पाने के लिए अगर माया करूँगा, तो
मैं अक्षय सुख से बहुत दूर चला जाऊँगा ।