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श्री पंचिदिय सूत्र
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• जो स्वयं पाप बांधकर मुझे पीडा देना चाहते हैं, वे स्वयं
ही अपने कर्मों से पराजित हुए हैं, तो उन पर गुस्सा करने से क्या लाभ है ? तीन लोक के नाथ प्रभु वीर सर्व शक्तिसंपन्न होने पर भी अपकारी के प्रति क्षमा धारण करते थे, तो मैं क्यों गुस्सा करूँ ? मुझे भी क्षमा ही रखनी चाहिए । अगर क्रोध करनेवाला असत्य बोल रहा है, तो उसके उन्मत्त प्रलाप से मुझे क्या लेना देना एवं अगर वह सत्य कह रहा है, तो भी मुझे गुस्सा करने की क्या
जरूरत ?'5 मान : “मैं कुछ हूँ" ऐसा भाव मान का परिणाम है । इस कारण किसी के द्वारा किया गया अपमान सहन न होना, हर एक व्यक्ति से मान की अपेक्षा रखना, मान मिलने पर आनंदित होना, हमसे कोई आगे बढ़ जाए तो दुःखी होना, पीछे हो जाए तो आनंदित होना । ये सभी भाव मान के ही प्रकार हैं ।
मान भी आत्मा को पीड़ा देता है । वह विनय, नम्रता आदि गुणों के साथ श्रुत एवं शील का भी नाश करता है। मानी व्यक्ति किसी के साथ वास्तविक मैत्री नहीं कर पाता । वह सर्वत्र निन्दा या हँसी का पात्र बनता है। उसके कारण अन्य तीन कषाय भी पुष्ट होते हैं । मैं कुछ हूँ... अच्छा हूँ ऐसी मान्यता के कारण अपने दोषों का ख्याल नहीं आता । दूसरों के प्रति ईर्ष्या या असूया का भाव भी मान की ही पैदाइश है। यह सब जानकर मुनि मान को तिलांजलि देने के लिए चिंतन करते हैं कि, • पूर्व पुरुषों की अपेक्षा मुझमें कुछ भी नहीं है । अतः मुझे
कभी भी अपने खानदान, रूप, बल, श्रुत, तप इत्यादि का
गर्व नहीं करना चाहिए । 5. योगशास्त्र प्रकाश-८ में ये और ऐसी अनेक भावनाएँ दिखाई हैं । उनका वहाँ से अभ्यास कर
उन पर चिंतन-मनन करना भी आवश्यक है ।