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सूत्र संवेदना
मुनि सदा तत्त्वचिंतनादि द्वारा इन कषायों से मुक्त रहने का प्रयत्न करते हैं । प्रयत्न एवं सावधानी के बावजूद भी जब पूर्वकृत कर्म के उदय से कषाय हो जाएँ, तो मुनि क्षमा, नम्रता आदि द्वारा उन कषायों के उदय को निष्फल करने का प्रयत्न करते हैं ।
कषायों के भेद तथा प्रभेद :
मोहनीय कर्म के अनेक प्रकार हैं । ज्ञानियों ने मोहनीय कर्म को मुख्यतया चार विभागों में बाँटा है - १ - क्रोध, २-मान, ३-माया, ४ - लोभ.
क्रोध : किसी के अपराध को सहन न करने का भाव, क्रोध है । जो वस्तु हमें अनिष्ट लगती हो, जिसकी प्रवृत्ति या प्रकृति हमें अच्छी न लगती हो, उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति आवेश, गुस्सा, अरुचि, घृणा, ईर्ष्या या असहिष्णुता का भाव, वैर वृत्ति, अमित्रता का परिणाम ये सब क्रोध स्वरूप भाव हैं ।
क्रोध प्रीति का नाश करता है । उससे स्व- पर को पीड़ा होती है । क्रोधी के आसपास उद्वेगपूर्ण वातावरण बना रहता है, जिससे सब का मन भारी रहता है। क्रोध में अगर होश गवाँ बैठे, तो जन्मजन्म के वैर की गाँठ बंध जाती है । जिससे अनेक भव तक दुर्गति की परंपरा का सर्जन होता है ।
1
से
क्रोध से उत्पन्न होनेवाले इन दुष्परिणामों को जानकर मुनि क्रोध कषाय
रहने का अथक प्रयास करते हैं । इसलिए वे सोचते हैं -
दूर
• सभी जीव मेरे संबंधी हैं, मेरे मित्र हैं । मैं क्यों उन पर
،
क्रोध करूँ ।
• मेरा तिरस्कार करनेवाले, मुझे अपमानित करनेवाले वास्तव में कर्मनिर्जरा जैसे दुष्कर कार्य में मुझे सहायक बन रहे हैं।
• मुझे तिरस्कृत करनेवाले मेरे गुरु तुल्य हैं, क्योंकि उनके वर्तन से ही मुझे संसार की असारता का बोध हुआ है । उन पर 'क्रोध करना उचित नहीं है ।