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श्री पंचिदिय सूत्र
सुख की प्राप्ति होगी । ऐसे भाव न आने देना, स्त्री क्रां साथ संबंधित होने के बावजूद भी यह भाव अपेक्षा
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भोग मृदु स्पर्श के
स अलग भी है ।
जिज्ञासा : पाँच महाव्रतों में चतुर्थ व्रत में इसका समावेश हो ही जाता है तो फिर ब्रह्मचर्य की गुप्ति को अलग क्यों कहा ?
तृप्ति : पाँच महाव्रतों में इसका समावेश हो जाता है, तो भी पाँचों व्रतों में अपेक्षा से इस व्रत का पालन अति कठिन है । इसके अतिरिक्त, जीव का स्वभाव अवेदी है तथा ऐसे अवेदी भाव को प्राप्त किए हुए ये भावाचार्य हैं, वैसी उपस्थिति इस पद को बोलते हुए हो सकती है । ऐसे उत्तम गुण संपन्न आचार्य की साक्षी में किए हुए अनुष्ठान से स्वयं में भी वैसे भावों की प्राप्ति संभवित होती है, ऐसे भाव प्राप्त करने हेतु यह पद अलग रखा गया लगता है ।
चडविह- कषाय - मुक्को : गुरु भगवंत क्रोध - मान-माया एवं लोभ स्वरूप चार प्रकार के कषायों से मुक्त हैं I
कषाय का अर्थ कहते हुए शास्त्रों में बताया है कि कष = संसार एवं आय = लाभ । जिससे संसार का लाभ हो, संसार की प्राप्ति हो, ऐसे प्रकार के जीवों के भाव कषाय कहलाते हैं । जिससे आत्मा को क्लेश हो, पीड़ा हो, वैसे परिणाम का नाम कषाय है
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कषाय, अनेक प्रकार के सुख एवं दुःख देनेवाले कर्मों को आकर्षित करते हैं, इसलिए उन्हें कषाय' कहते हैं । प्रशस्त कोटि के कषाय पुण्यबंध करवाकर सुख प्रदान करते हैं और अप्रशस्त कषाय पाप-बंध करवाकर दुःख प्राप्त करवाते हैं । कषाय आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कलुषित करते हैं, मलिन करते हैं, इसलिए भी उन्हें कषाय कहा जाता है ।
संसार के समग्र दुःखों का मूल ये कषाय हैं । कषाय के कारण जीव कर्म बांधकर चारों गति में भटकता है । वर्तमान में भी कई मानसिक दुःख एवं कई शारीरिक तकलीफें कषाय से ही उत्पन्न होती हैं ।
3. क्लिष्यते अनेन इति कषायः ।
4. सुह- दुक्खबहुसहिमं, कम्म खेत्तंकसंति जं जहा । कलुसंति जं च जीवं, तेण कसाइ त्ति वुच्च॑ति ।।