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सूत्र संवेदना
वेद के उदय को निष्फल बनाकर निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए शास्त्रोक्त रीति से तत्त्वचिंतन करते हुए मुनि सोचते हैं कि, “मेरा स्वभाव तो ज्ञानादि गुणों को भुगतने का है । आत्मा में आनंद मानने का है । यह भोग की प्रवृत्ति तो अति कुत्सित प्रवृत्ति है, देखने से भी घृणा उत्पन्न करती है । यह प्रवृत्ति विवेकी पुरुष को लज्जा उत्पन्न कराए, ऐसी है । कायर पुरुष कदाचित् इसमें प्रवृत्ति करे, परंतु सात्त्विक पुरुष ऐसे क्षणिक सुख देकर महादुःख के खड्डे में गिरानेवाले निंदनीय भोगादि भावों में कभी आसक्त नहीं होते । वे तो आत्मा को अनंत आनंद देनेवाले ब्रह्मचर्यादि भावों में ही प्रवृत्त होते हैं ।" इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धि से बार-बार चिंतन करने से उदयमान वेदमोहनीय कर्म कार्य तो नहीं करते, परन्तु धीरे धीरे मंद-मंदतर होते जाते हैं और एक दिन सर्व कर्मों के विनाश से पूर्ण ब्रह्मचर्य का भाव प्रगट होता है । इस भाव में ही मुनि में ब्रह्मचर्य की गुप्ति कही है ।
जिज्ञासा : पाँच इन्द्रियों के विकार के संवर में ब्रह्मचर्य की गुप्ति आ जाती है, तो फिर उसे अलग क्यों कहा ?
तृप्ति : पाँच इन्द्रियों के संवर में स्पर्शनेन्द्रिय का संवर हो ही जाता है, तो भी कुछ प्रकार के स्पर्शनेन्द्रिय के विषय अति कुत्सित, अति खराब एवं अति निंदनीय हैं । अनादिकाल से मैथुन से प्रेरित जीव अति निंदनीय स्पर्शादि के विषयों में मूढ़ की तरह प्रवर्तन करता है । इससे पराङ्मुख होना पंडित पुरुषों के लिए भी दुष्कर होता है, इसलिए इस विषय की प्रधानता के लिए नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति को अलग ग्रहण किया है ।
जिज्ञासा : स्पर्शनेन्द्रिय के विषय से अटकना तथा मैथुन से अटकना इन दोनों में क्या अंतर है ?
तृप्ति : स्पर्शनेन्द्रिय के विषय से अटकना अर्थात् शीत-उष्ण-मृदु-कठोर आदि भावों में रति-अरति आदि न होने देना, जब कि मैथुन से अटकना अर्थात् स्त्री आदि के प्रति यह स्त्री है, मेरे लिये भोग्य है, इसके भोग से मुझे