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________________ 12. विनय - विवेक A. सावधान ! आप देवव्रव्य के कर्जदार तो नहीं है, ना...? दुर्गति की हारमालाओं से बचने के लिए इतना अवश्य पढकर समझ लिजीए साकेतपुर नाम के एक नगर में एक श्रेष्ठिने एक हजार कांकणी (रुपये) देवद्रव्य का बकाया कर्जा (राशी) नहीं भरकर घोर दुष्कर्म बांधा और बिना आलोचना किए मृत्यु के शरण में जाकर जल मनुष्यमहामत्स्य के भटों मे 6-6 महिना घंटी में पिसाते हुए महावेदना भोगकर अनुक्रम से सातवी नरक में 22 बार उत्पन्न हुआ... उसके बाद समय के अंतर से या निरंतर हजार भव - कुत्ते के हजार भव - सर्प के हजार भव - कृमि के हजार भव - सुअर के हजार भव - बिच्छु के हजार भव - पतंगिये के हजार भव - बकरी के हजार भव - पृथ्वीकाय के हजार भव - मक्खी के हजार भव - मग के हजार भव - अपकाय के हजार भव – भँवरे के हजार भव - अंबर के हजार भव - तेउकाय के हजार भव - कछुए के हजार भव - शियाल के हजार भव - वायुकाय के हजार भव - मगर के हजार भव - बिल्ली के हजार भव - वनस्पतिकाय के हजार भव - पाडे के हजार भव - चुहे के हजार भव - शंख के हजार भव - गधे के हजार भव - नेउर के हजार भव - छीप के हजार भव - खच्चर के हजार भव – छिपकली के हजार भव - मच्छी के हजार भव - घोडे के हजार भव – गधे के हजार भव - कीडे के हजार भव - हाथी के कीए यह सभी भवो में शस्त्रघात से महाव्यथा भोगकर मृत्यु पाता है। ऐसे हज रो भवों के पश्चात वह जीव वसंतपुर नगर में कोट्याधिपति वसुदत्त के घर उत्पन्न हुआ और गर्भ में आते ही सर्व द्रव्यों का नाश हुआ। जन्म होते ही पिता की मृत्यु हुई। पांच साल के पश्चात माता की भी मृत्यु हुई, जिससे गाँव के लोगों ने उसका नाम निष्पुण्यक रखा। सभी जगहों से तिरस्कृत होता हुआ वह युवान हुआ और भाग्य को आजमाने के लिए परदेशगमन किया। बीच समंदर जहाज डुबने के पश्चात निष्पुण्यक लकडे के सहारे किनारे पर आया और जहां भी गया वह कुत्ते की तरह हकलाया गया। 69
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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