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________________ ही भाव उत्तम होते हैं, एवं यही उत्तम वस्तु का श्रेष्ठ उपयोग है। प्रश्न: प्रभु तो वीतरागी हैं तो उनसे किया गया प्रेम किस काम का? उत्तर: इसका जवाब उपाध्यायजी म.सा. ने धर्मनाथ भगवान के स्तवन में दिया है: निरागी सेवे कांई होवे, प्रभु भक्ति मन मां नवि आणुं फले अचेतन पण जिम सुरमणि, तिम तुम भक्ति प्रमाणुं....थाशुं...2 चंदन शीतलता उपजावे, अग्नि ते शीत मिटावे सेवकना तिम दु:ख गमावे, प्रभु गुण प्रेम स्वभावे..थाशुं...3 स्तवन की पंक्तियाँ बताती है कि आप मन में ऐसा मत सोचना कि भगवान तो वीतराग है तो इनकी सेवा किस काम की? जब अचेतन (जड) चिंतामणि रत्न अगर उसकी सेवा करने वाले को फल दे सकता है, तो सचेतन ऐसे प्रभु की सेवा फल क्यों नहीं दे सकती? तथा जैसे चंदन किसी को ठंडक देने का सोचता नहीं है लेकिन जो उसका उपयोग करता है, उसे ठंडक देता है। अग्नि का स्वभाव है ठंडी दूर करना, उसी प्रकार प्रभु का स्वभाव है सेवक के दु:ख दूर करना। यह दु:ख दूर करने का कार्य उनके स्वभाव से ही हो जाता है। उत्कृष्ट पुण्य बंध का कारण प्रभु ही है। प्रभु पुण्य पैदा कर सर्व सुख देने में समर्थ हैं। अत: प्रभु की खूब सेवा करनी चाहिये। प्रश्न: प्रभु के दर्शन क्यों और किस भाव से करने चाहिये? उत्तर: प्रभु के दर्शन से अपनी अशांत आत्मा शांत भाव को प्राप्त करती है। प्रभु को देखने से हमें अपनी आत्म दशा का भान होता है। जीव मोहदशा में आत्मा को भूलकर पुद्गल से प्रेम करने लगता है। जिसमें जीव के अंत में दु:खी होना पड़ता है। लेकिन प्रभु को देखने से ऐसा लगता है जैसे मेरी आत्मा भी ऐसी ही है और समान जातीय होने से प्रभु के साथ जीव तुलना करने लगता है। उसे लगता है कि, मैंने पुद्गल के मोह में कैसे-कैसे राग द्वेष कर अपने आप को दु:खी किया। अब मैं भी प्रभु कृपा से उनके प्रति प्रेम करने से प्रभु जैसा बनूँ। ऐसी भावना मन में आने लगती है। प्रश्न: प्रभुभक्ति विधिवत् करने के लिये क्या करना चाहिये? उत्तर: प्रभुभक्ति को विधिवत् करने के लिये दशत्रिक एवं पाँच अभिगम जानना जरुरी है। प्रश्न: दशत्रिक का मतलब समझाओ ? । उत्तर: दशत्रिक यानि तीन-तीन प्रकारवाली दश बातें। मंदिरजी में इन दश बातों का ध्यान रखना खूब जरूरी है। इन त्रिक के पालन से आशातना दूर होती है एवं विशिष्ट आराधना होती है। प्रश्न: दशत्रिक के नाम बताओ? | उत्तर: निसीहि, प्रदक्षिणा, प्रणाम, पूजा, अवस्था, त्रिदिशिवर्जन, प्रमार्जना, आलम्बन, मुद्रा एवं प्रणिधान यह दश त्रिक हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन पूर्व में दिया गया है। यहाँ विधि के अंतर्गत जहाँ - 15
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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