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3. जिन मंदिर विधि
प्रश्नः पूजा के कितने प्रकार हैं?
उत्तर: पूजा के दो प्रकार हैं
1. द्रव्य पूजा : जल, चंदन आदि द्रव्यों से की जाने वाली प्रभु की पूजा । 2. भाव पूजा : स्तवन, स्तुति चैत्यवंदन आदि से प्रभु के गुणगान करना।
प्रश्न: प्रभु की द्रव्यपूजा करने से कच्चे पानी, फूल, धूप, दीप, चंदन घिसना वगैरह से जीव विराधना होती है, उसमें पाप नहीं लगता?
उत्तर: जो जीव संसार के छ: काय के कूटे में बैठा है और नश्वर शरीर के लिये सतत पाप कर रहा है वैसा जीव आत्मा में भावोल्लास लाने के लिये प्रभु की द्रव्य पूजा करें यह उचित है। जयणा पूर्वक प्रभु की द्रव्य पूजा करने पर उसे तनिक भी पाप नहीं लगता । प्रत्युत अनेक गुण निर्जरा ही होती है। ललित विस्तरा ग्रंथ में कहा गया है कि जो व्यक्ति पुष्पादि के जीवों की दया सोचकर पूजा नहीं करता एवं अपने लिये धंधे आदि में एवं घर में अनेक जीवों का संहार करता है, उसे पूजा नहीं करने के कारण महापाप लगता है।
प्रश्न: द्रव्य पूजा से आत्मा को लाभ होता है, यह कैसे समझा जा सकता है ।
उत्तरः शास्त्रकारों ने यह समझाने के लिये कूप दृष्टांत दिया है। जैसे कोई व्यक्ति पानी के लिये
खोदता है| तो कुआँ खोदते समय उसकी तृषा बढ़ती है, कपड़े गंदे होते हैं एवं थकान भी लगती है। फिर भी वह कुआँ इसलिये खोदता है कि एक बार पानी की शेर मिल जाने पर हमेशा के लिये तृषा शमन, कपड़े साफ करना एवं स्नान से थकान उतारने का आसान बन सकता है। उसी प्रकार द्रव्य पूजा में यद्यपि बाह्य रुप से हिंसा दिखती है। लेकिन उससे उत्पन्न होने वाले भाव से संसार के आरंभ-समारंभ कम हो जाते हैं। एवं किसी जीव को द्रव्य पूजा करते-करते दीक्षा के भाव भी आ सकते हैं। जिससे आजीवन छ: काय की विराधना अटक जाती है। प्रश्न: साधु भगवंत पूजा क्यों नहीं करते?
उत्तरः संसार के त्यागी साधु भगवंत जल, पुष्पादि की विराधना से सर्वथा अटके हुए होते हैं। उनके भावों में सतत पवित्रता बनी रहती है। बिना द्रव्य पूजा ही शुद्ध भाव प्राप्त होने से उन्हें द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं रहती है। क्योंकि उन्होंने द्रव्य का ही त्याग कर दिया है।
प्रश्न: भगवान तो कृतार्थ हैं, उनको किसी चीज की जरूरत नहीं होती तो उनको उत्तम द्रव्य
क्यों चढाना ?
उत्तर: प्रभु वीतराग है, लेकिन हम रागी होने से संसार में कहीं न कहीं प्रेम कर बैठते हैं .... फेर प्रेम में बढावा करने के लिये एक दूसरे को कुछ देते हैं। जब हम प्रभु को कुछ समर्पित करते हैं तो अपना प्रेम संसार की मोह दिशा छोडकर प्रभु के साथ बढने लगता है। जिससे हमें निस्वार्थ प्रेम की सच्ची अनुभूति होती है एवं आनंद आता है। सामान्य से द्रव्य जितना उत्तम होता है, उतने
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