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________________ आठ वर्ष की छोटी उम्र में भी वज्रकुमार मुनि का ज्ञान वैभव आश्चर्यकारी था। वे संयम में सावधान थे। उनकी सावधानी की परिक्षा के लिये उनके पूर्वभव के मित्रदेव ने माया फैलाई। एक बार श्री सिंहगिरिजी महाराज अपने समुदाय के साथ विहार कर रहे थे, वहाँ अचानक बादल छा गए और वर्षा होने लगी। एक विशाल घने वृक्ष के नीचे सभी आकर खडे रहे। निकट में ही किसी बडे सार्थवाह का पडाव, तंबू दिखाई पडे, आहार का समय हो चुका था। परंतु अभी तक रिमझिम वर्षा हो रही थी। मुनि श्रेष्ठ स्वाध्याय ध्यान में जुट गए थे। वहाँ एक सार्थवाह ने आकर वंदन पूर्वक अति नम्र प्रार्थना की कि मेरा पडाव यहाँ पास ही है, वर्षा भी रुक गई है, आहार का अवसर हो चुका है, कृपालु ! दया करके मेरे आवास पर पधार कर इसे पावन करें। आचार्य महाराज ने बालमुनि वज्र को गोचरी जाने के लिये कहा। वज्रमुनि सार्थेश के साथ उसकी छावनी में बहरने के लिये गए। सार्थवाह ने भी अति भावपूर्वक घेवर के थाल मँगवाए और बहरने का आग्रह किया। सदैव सजग और सावधान वज्रमुनि को उस सार्थपति में कुछ विलक्षणता दिखाई दी। ध्यान पूर्वक देखने पर उन्हें लगा कि ये लोग मानव नही, बल्कि देवता लगते है। अरे ! इनकी आँखों की पलके भी नहीं झपकती। निश्चित रूप से ये तो देवता ही हैं। देवदत्त भिक्षा तो अकल्प्य होती है। वे लौटने लगे। देव को पता चल गया कि वज्रमुनि में अद्भुत सावधानी है। देखते ही मुँह से लार टपकने लगे ऐसे सुमधुर सौरभ युक्त घेवर पर उन्होंने दृष्टि भी नहीं डाली। धन्य साधु ! धन्य साधुता ! देव ने प्रकट होकर उनके पूर्वभव की मित्रता की बात कही, उनकी बहुत प्रशंसा की और वैक्रिय रुप बना सके ऐसी विद्या उन्हें आग्रहपूर्वक दी। कुछ समय के पश्चात् उस देव ने वैसा ही इन्द्रजाल पुन: प्रस्तुत किया और वज्रमुनि को कद्दूफल की मिठाई (कोलापाक) बहराने लगा। परंतु अति सतर्क वज्रमुनि परिस्थिति को समझ गए और बिना गोचरी लिए ही वे लौटने लगे, कि वही देव प्रकट होकर उनके चरणों में नतमस्तक हुआ। उनकी साधुता की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगा। उन्हें तपोबल से क्षीराश्रव आदि अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई थी। उनमें आश्चर्य उत्पन्न करे ऐसी ज्ञान की गरिमा थी। एक बार सभी साधु-महाराज बाहर गए हुए थे। वज्रमुनि ने मध्य में अपना ऊँचा आसन जमाकर आसपास अन्य साधु-महाराजाओं के आसन जमाए। स्वयं सभी को वाचना देते हो, इस प्रकार अपूर्व छटा से अस्खलित रूप से स्पष्ट उच्चारणपूर्वक सूत्र पाठ बोलने लगे। बाहर से आए हुए गुरु महाराज ने यह अनोखा दृश्य देखा और देखते ही रह गए। वज्रमुनि की अप्रितम प्रतिभा देखकर वे आनंदाश्चर्य महसूस कर रहे थे। योग्य पात्र और व्यक्तित्व जानकर गुरू महाराज ने वज्रमुनि को गहन अध्ययन करवाया। वे दसपूर्वी और अति अल्प वय में आचार्य हुए। वे प्रतिदिन 500 साधु महाराजों को आगम की वाचना देते थे। उनकी वाणी में कोई गजब की मधुरिमा थी कि सुनते ही मानो हृदय में अंकित हो जाती थी, उनका प्रवचन सुनने के लिए स्पर्धा होती थी। अनेक जीव प्रतिबोध पाते, व्रत-महाव्रत स्वीकार करते थे। श्री वज्राचार्य की कीर्ति की सौरभ रजनीगंधा के पुष्प की तरह सभी दिशाओं में फैलने लगी। श्रावक-श्राविकाओं के उपाश्रयों में श्री वज्रसूरिजी की पुण्य प्रतिभा, ज्ञान गरिमा, सौंदर्य युक्त स्वस्थता, (103
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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