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अद्वितीय प्रभावकता और अपनी ही लाक्षणिकता आदि गुणों का गान करते हुए साधु--साध्वी भी तृप्त नहीं होते थे। एकबार उन्होंने ज्ञानबल से जाना कि महादुष्काल पडेगा, उन्होंने तुरंत ही साधु समुदाय को अच्छे प्रदेश में विहार करवाया। उसमें अपने पट्टधर वज्रसेन मुनि को अच्छे समारोह पूर्वक आचार्य पद देकर बताया कि यहाँ की जनता अन्न के अभाव की महा व्यथा भोगेगी, परंतु जिस दिन एक लाख मुद्राओं के व्यय से एक हांडी अन्न पकाया जाएगा, उसके दूसरे दिन से ही अन्न सुलभ होगा इत्यादि समझ और हितशिक्षा दी। उन्होंने वैक्रिय शक्ति से एक चद्दर विकुर्वित की, उस पर सकल संघ को बिठाकर
आकाशगामिनी विद्या से वे जिस प्रदेश में अन्न-जल सुलभ थे, वहाँ गए। सभी अपने-अपने योग्य काम में लग गए और धर्माराधना करने लगे। उस प्रदेश में बौद्धों का बड़ा प्रभाव था। राजा और प्रजा सभी बौद्धधर्म में मानने वाली थी। नवागुन्तुक जैनों को वीतराग देव की पूजा के लिये वे पुष्प नहीं देते थे, फिर भी लौंग अथवा महँगे पुष्प लेकर भी कार्य चलाते थे। ऐसा करते-करते महापर्व पर्युषण पधारें।
अब तो पुष्प के बिना कैसे चलेगा ? परंतु राजा ने जैनों को पुष्प न देने का आदेश दिया। संघ व्यथित हुआ और संघ ने जाकर श्री वज्रस्वामी को प्रार्थना की कि ऐसे महान् दिनों में भी प्रभुजी की पुष्पपूजा का हमें लाभ नहीं मिलेगा क्या ? संघ की प्रार्थना से श्री वज्रस्वामी आकाशगामिनी विद्या से हिमवंत पर्वत पर स्थित महालक्ष्मी देवी के पास गए। देवी ने देखते ही देखते विस्मय में डल दे ऐसे कमल दिये। तिर्यक्जुंभक देव ने भी अन्य लाखों पुष्प दिये। वे सभी पुष्प वैक्रीय लब्धि से बनाए हुए विमान में लेकर वे बुद्धनगरी के प्रांगण में आकाश में से उतरे। उनकी ऐसी शक्ति तथा सुंदर सुरभित और रंग बिरंगे पुष्प कमल देखकर प्रजा चकित हो गई। राजा के भी विस्मय का पार न रहा। उसके कारण राजा श्री वज्रस्वामी के संपर्क में आकर परम जैन बना, जिन शासन के जय-जयकार घोष के नगाडे बजने लगे। जिनशासन की जयपताका आकाश तक जा पहुँची।
इस प्रकार शासन प्रभावना करते करते अपना आयुष्य अल्प जानकर श्री वज्रस्वामी ने रथावर्त नाम पर्वत पर अनशन किया और परिणाम स्वरूप स्वर्ग में सिधारे। दस पूर्व के धारक वज्र स्वामी आठ वर्ष गृहस्थावस्था में रहकर, चवालीस वर्ष गुरूसेवा में व्यतीत कर छतीस वर्ष युग प्रधान के रूप में विचरण कर अठासी वर्ष का कुल आयु पूर्ण करके महावीर प्रभु के निर्वाण के पश्चात् पाँच सौ वर्ष व्यतीत होने के बाद देवत्व (मृत्य) को प्राप्त हुए।
वज्रस्वामी के शिष्य श्री वज्रसेनसूरिजी भीषण दुष्काल में विचरते हुए सोपारा नगर में पधारें। यहाँ के नगरसेठ ने दुष्काल से तंग आकर आत्महत्या करने का विचार किया। उन्होंने एक बार दस व्यक्ति भोजन कर सके उतने उत्तम चावल एक लाख मुद्राएँ खर्च करके रंधवाए। दु:ख सहन करना और अन्य का दुःख देखना इससे तो मरना बहतर है ऐसा निर्णय करके वे एक लाख मुद्रा के चावल की हँडिया में विष डालने की तैयारी में ही थे कि वहाँ धर्मलाभ कहते हुए वज्रसेन सूरिजी महाराज पधारें।
भीषण दुष्काल में भी कमलशाली नामक अति महँगे चावल देखकर कारण पूछने पर श्रावक ने कहा, भगवन् ! यह दुष्काल अब देखा नहीं जाता, लाख मुद्राओं की यह अंतिम हँडिया चढाई है। इसमें
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