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________________ जीवन का आधार है। कृपावतार ! कुछ भी करके मेरा पुत्र मुझे वापस दिलाइए। इस बालक के बिना मैं हर्गिज नहीं रह सकुंगी। असमंजस में पडे हुए राजा ने आखिरकार मार्ग ढूँढ कर न्याय दिया कि एक ओर माता और दूसरी ओर उसके पिता बैठे, बालक मेरे पास खडा रहेगा, उसे मैं कहँगा कि यह तेरी माता है और ये तेरे पिता है। तुझे जिसके पास जाना है उसके पास जा । वह बालक जिसके पास जाएगा उसका होगा। बोल तुझे यह निर्णय मान्य है ? वह बोली हाँ ! महाराजा मान्य है- और सुनंदा अपने काम में लग गई। दूसरे दिन प्रात: राजमहल में भीड उमडी। समय से पूर्व ही सुनंदा राजमहल के न्यायालय में आ पहुंची थी। सुंदर स्थान देखकर अपने आगे ही खिलौने, मिठाई और अच्छे वस्त्र जमाकर वह बैठ गई। राजा और अधिकारी भी आ गए। सभा भर चुकी थी। सारी सभा खडी हो गई, त्यागियों का सभी ने स्वागत किया। मुनि श्री ने आसन ग्रहण किया, तत्पश्चात् राजा और सभी लोग आसीन हुए। सुंदर, स्वस्थ और स्थिर ऐसा वज्रकुमार राजा के पास खडा था। सभी ने देखा कि मेवा, मिठाई, कपडे और विशेष खिलौने लेकर सुनंदा पुत्र को निरखती बैठी है। जबकि उसके सामने ही शांत, प्रसन्न और स्वस्थ मुनि श्री धनगिरिजी बैठे है, परंतु उसके पास बालक को आकर्षित करे ऐसा कुछ भी न था। सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुई। धीरे और गंभीर स्वर से राजा अपने पास खडे हुए बालक को कहने लगे वत्स, वज्रकुमार ! देख इधर तेरे लिये अति मनपसंद वस्तुएँ लेकर बैठी हुई तेरी माता है, ममता की मूर्ति है, तुझ पर उसे अपार प्रेम है। तेरे लिए सब कुछ कर डालने के लिये उसकी तत्परता है। उधर सामने वीतराग मार्ग का वेश पहनकर बैठे हुए तेरे पिता है। वे त्याग की प्रतिमूर्ति और धर्म के अवतार है। तू स्वयं ही समझदार है, अत: मैं तुझे इतना ही कहता हूँ कि इन दोनों वत्सल माता और दयालु पिता में से तुझे जो पसंद आए उनके पास तू जा। जिनके पास तू जाएगा, उनके पास तुझे उनका बन कर रहना पड़ेगा। वय के अनुरूप खूब ही ध्यान से वज्रकुमार यह सब सुनकर देख रहा था। पल भर माता को देखता था, तो दूसरी पल पिता को देखता था। एक ओर ममता-वात्सल्य की खान थी, तो दूसरी ओर असीम दया का सागर था। वज्र देखता जाता है और धीरे-धीरे आगे बढता जाता है। स्नेह बावरी माँ स्नेह से उसे अपनी ओर बुलाती है और भाँति भाँति की वस्तुएँ खिलौने दिखाती जाती है। कभी तो वह दुलार ही दुलार में राजसभा का अस्तित्व भी भूल जाती है और बैठी हुई होते हुए भी आधी खड़ी हो जाती है। उधर धनगिरि के पास ऐसी चपलता न थी और बालक को आकर्षित करे ऐसी कोई वस्तु भी न थी। सुनंदा और धनगिरि के मध्य चले आ रहे वज्र को धनगिरि ने अपना रजोहरण (ओघः) ऊँचा करके बताया और गंभीर बालक आनंदित होकर उसके पास दौडा, रजोहरण लेकर नाचने लगा और उनके पास बैठकर प्रसन्नवदन से सभी को देखने लगा। आखिरकार राजा ने भी यही न्याय दिया, कि - बालक मुनिश्री के पास ही रहने का इच्छुक है, सयानी सुनंदा भी वास्तविकता को समझ गई । उसने वज्रकुमार को उमंग से दीक्षा दिलवाई और अति उत्साहपूर्वक स्वयं ने भी दीक्षा ली। 102
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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