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________________ सुविधा में मुझे आपके इस पुत्र ने दु:खी कर डाला है। अत: कृपया इसे आप ही ले पधारो। धनगिरिजी ने झोली फैलाते हुए कहा सुनंदा ! मैं इसे लेने के लिये तैयार हूँ, परंतु बाद में आपत्ति मत उठाना। सुनंदा बोली “नहीं ! मुझे किसी कीमत पर ऐसा पुत्र नहीं चाहिए, आप इसे खुशी से ले पधारो, मैं तो मुक्त हुई इस झंझट में से।” ऐसा कहकर उसने बालक को श्री धनगिरिजी की झोली में डाल दिया और उसी क्षण वह बालक मुस्कुरा उठा, सुनंदा भी चकित देखती रही। धनगिरि धर्मलाभ कहकर उपाश्रय में लौटे। गुरु महाराज ने पूछा यह वज्र जैसा वजनदार क्या लाए हो ? ऐसा कहकर उनकी झोली लेकर खोली तो अंदर मजे से मुस्कुराता हुआ बालक देखा। तब से उस बालक का नाम वज्रकुमार हो गया। धर्मिष्ठ अग्रणी श्रावक को वह बच्चा सुपुर्द कर सूचना दी गई, की इसके भाव बढे और अच्छे संस्कार पाए ऐसा वातावरण देना। उस श्रावक ने श्राविका को सुपुर्द किया और श्राविका धर्मिष्ठ होने से फुर्सत मिले तब तुरंत वज्र को लेकर साध्वीजी के उपाश्रय में ही पहुँच जाती। वहीं पर उसने झूला भी रख दिया। वज्रकुमार को वह तनिक भी दूर नहीं रखती थी। वज्र इतना सुंदर था कि स्वत: उसे दुलार करने को जी ललचाएं, कभी भी रोने का तो नाम ही नहीं।। जब भी देखो तब आनंद में पुलकता रहता था। श्राविका शांति पूर्वक सामायिकादि क्रिया करती और धर्म का अभ्यास करती थी, तब वज्र शांति पूर्वक पलने में पडा-पडा सब सुनता रहता था, तनिक भी तंग करने का तो प्रश्न ही नहीं। इस प्रकार करते-करते वज्र तीन वर्ष का हुआ। पूर्व ज्ञान के बल से तीन वर्षीय यह ब लक कभी तो ऐसा बातें करता था कि श्रोता भी चकित हो जाए। उसकी वाक् छटा, ज्ञान भरी बातें, छोटी सी उम्र होते हुए भी बहुत बडी समझ, प्रसन्न मुद्रा, जब भी देखो तब ताजे खिले हुए कमल जैसी प्रफुल्लता। इन सभी विलक्षणताओं ने वज्रकुमार को चर्चा का पात्र बना दिया। सनंदा का यह रोतड पुत्र ?? नहीं नहीं ! कैसा सुहावना, सुंदर और समझदार है ! यह बात सुनंदा के कानों तक पहुँची। उसने भी परख कर ली कि यह मेरा ही पुत्र है। मुझ अभागिन ने ऐसा मजे का, अरे हजारों में भी न मिले, ऐसा पुत्र दे दिया। दे दिया तो क्या हुआ ? जाकर अभी वापस ले आती हूँ। ऐसा सोचकर वह उपाश्रय में आई और माँग की, मेरा पुत्र मुझे लौटा दो। धनगिरिजी ने कहा - मैने तुझे तभी स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि सुनंदा ! बाद में आपत्ति मत उठाना । तब तुमने ही कहा था, नहीं रे ! मुझे ऐसा पुत्र किसी भी कीमत पर नहीं चाहिये, याद है न? सुनंदा बोली - महाराज ! मुझे यही समझ में नहीं आता कि ऐसा पुत्र मैंने आपको क्यों दे दिया ? मुझे अपने पुत्र के बिना नहीं चलेगा, मुझे मेरा लाल लौटा दो। श्री सिंहगिरिजी और धनगिरिजी ने सुन्दा को बहुत समझाया परंतु वह न मानी। आखिरकार सुनंदा राजदरबार में पहुँची, उसने राजा को फरियाद करते हुए कहा, मेरे पति ने तो दीक्षा ले रखी है, परंतु मेरा इकलौता पुत्र भी उनके पास है, वह मुझे वापस दिलवाइए। मैं किसके लिये जीऊँ ? राजा ने सारा वृत्तान्त सुनकर कहा, बहन घर पर आए हुए संत को तु स्वयं ही कोई वस्तु दे, फिर उस पर तेरा अधिकार नहीं रहता। सुनंदा ने कहा यह वस्तु नहीं महाराजा ! मेरा इकलौता पुत्र है, मेरे -101
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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