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હંમેશા નિરાશસભાવે વિચરતા હતા. જ્યારે ક્યારે પ્રભુ આહાર કરતા હતા પરંતુ તે પણ લુઓ - સુકો અને ગૃહસ્થોએ સ્વયંના માટે રાખી મૂકેલ આહાર કરતા હતા ॥ ५-६॥
પ્રભુ નિત્યભોજન નહોતા કરતા પરંતુ ક્યારેક બીજા – ત્રીજા - ચોથા અને પાંચમા દિવસે આહાર કરતા હતા, આહાર ન કરવાથી ભગવાનના મનમાં કોઈ પણ પ્રકારની દુર્બલતા ઉત્પન્ન થતી નહોતી પરંતુ તેઓ ફક્ત શરીરના નિર્વાહ માટે भाार ४२ ॥ ७ ॥
હેય - ઉપાદેય પદાર્થોને જાણીને પ્રભુ મહાવીરસ્વામીએ છદ્મસ્થ અવસ્થામાં ન પોતે પાપ કર્યું, ને બીજા પાસે કરાવડાવ્યું અને પાપ કરતા એવાને સારો પણ ન જાણ્યો भात : ५ ४२ता मेवा llनी अनुमोहन॥ ५९॥ ॐ न ॥ ८ ॥ ___ भावार्थः- भगवान् के शरीर में किसी प्रकार की व्याधि न होते हुए भी भगवान् सदा ऊनोदरी तप करते थे। भगवान् को श्वांस खांसी आदि शरीर जन्य कोई भी रोग नहीं होता था किन्तु अन्यकृत जो कष्ट और व्याधि होती थी, उसकी निवृत्ति के लिए भगवान् औषधि करने की कभी इच्छा तक नहीं करते थे ॥१॥
- भगवान् जानते थे कि यह औदारिक शरीर अशुचि मय है । किसी भी प्रकार से इसकी शुद्धि नहीं हो सकती है, ऐसा जान कर वे जुलाब, वमन, तैलादि द्वारा शरीर का मर्दन, स्नान, पगचम्पी और दांतन आदि बारा किसी भी प्रकार से इस शरीर की परिचर्या नहीं करते थे ॥२॥
इन्द्रियों के विषय से विरक्त भगवान अल्प भाषी होकर विचरते थे। कभी कभी शीत काल में भगवान् छाया में बैठ कर धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान किया करते थे ॥३॥
': प्रभु ग्रीष्मऋतु में सूर्य सन्मुख बेठकर आतापना लेते थे, तथा लुखा-सुका आहार से शरीर का निर्वाह करते थे ॥४॥
. चातुर्मास के अतिरिक्त शेष आठ महीनों में शरीर निर्वाहार्थ प्रायः रूक्ष.भात, बोरकूट तथा कुलत्थी आदि नीरस आहार करते थे। कभी कभी वे पन्द्रह दिन, एक महीना, दो महीना और दो महीनों से अधिक तथा छह महीने तक तपस्या करते थे। उनके मन में किसी भी प्रकार की इच्छा भी उत्पन्न नहीं होती थी किन्तु वे सदा निरीह भाव से विचरते थे। कभी कभी भगवान् आहार करते थे किन्तु वह भी रूखा सूखा और ठंडा आहार करते थे ॥५-६॥ . भगवान् नित्यभोजी नहीं थे किन्तु कभी दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें दिन आहार करते थे। आहार न करने से भगवान् के मन में किसी भी प्रकार की दुर्बलता उत्पन्न नहीं होती थी किन्तु वे केवल शरीर के निर्वाह के लिए आहार करते थे ॥७॥
हेय और उपादेय पदार्थों को जान कर भगवान महावीर स्वामी ने छद्मस्थ अवस्था में न स्वयं पाप किया, न दूसरों से करवाया और करते हुए को अच्छा भी नहीं जाना अर्थात् पाप कर्म करते हुए प्राणी की अनुमोदना तक नहीं की ॥८॥
| श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(३४३)