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દેતા હતા, પરંતુ પ્રભુએ તો શરીર પરના મમત્વનો ત્યાગ કરેલ હતો એટલે તેઓ તે બધા કષ્ટોને સમભાવપૂર્વક સહન કરતા હતા પરંતુ તેના પ્રતિકાર ને માટે વિચાર સુદ્ધા ३२ता नहो। ॥ १२ ॥
* જેમ સંગ્રામ - યુદ્ધમાં આગળના ભાગમાં યુદ્ધ કરતા એવા વીરપુરૂષ શત્રુઓ દ્વારા સુબ્ધ થતા નથી, તે જ પ્રકારે પ્રભુ મહાવીર સ્વામી તે પરિષહ - ઉપસર્ગોથી કીચિન્માત્ર જરાક પણ ક્ષુબ્ધ થયા નહીં, તે બધાને સમભાવપૂર્વક સહન કરતા એવા तमोभे स्वयंना प्रतीम निश्यद 45ने विडार ४३८. सतो. ॥ १३॥
પ્રભુ મહાવીરસ્વામીએ પૂર્વોક્ત પ્રકારથી આચરણ કરેલ હતું એટલે બીજા મોક્ષાર્થી પુરૂષોએ પણ તે જ પ્રકારે આચરણ કરવું જોઈએ એમ સુધર્માસ્વામી સ્વયંના शिष्य स्वामीने छ ॥ १४ ॥ ...
भावार्थः- जैसे हाथी संग्राम के अग्र भाग में जाकर शत्रु के प्रहार की परवाह न करता हुआ शत्रु सेना . को जीत कर उसको पार कर जाता है । इसी तरह भगवान् महावीर स्वामीने भी लाढ देश में परीषहों को जीत
करके उस देश को पार किया था। कभी कभी ठहरने के लिए उन्हें ग्राम भी नहीं मिलता था । तब वे जंगल में वृक्षादि के नीचे ठहर जाते थे ॥८॥ . ... लाढ देश में विचरते हुए भगवान् जब कभी भिक्षार्थ या निवासार्थ ग्राम के पास पहुँचने से पहिले ही वहाँ के अनार्य लोग ग्राम से निकल कर भगवान को अनेक प्रकार से कष्ट देते थे और कहते थे कि यहाँ से दूर चला जा ॥९॥ • लाढ देश में अनार्य लोग भगवान को लाठी, मुट्ठी, भाला, पत्थर और घड़े के टुकड़ों आदि से मारते थे और मार कर हल्ला मचाते थे ॥१०॥
... कभी कभी वे अनार्य लोग भगवान् का मांस काट लेते थे, उन्हें धक्का देते थे, मारते थे और उनके ऊपर धूलि फेंकते थे किन्तु भगवान् इन सब परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करते थे ॥११॥
अनार्य लोग भगवान् को जमीन से उठा कर पटक देते थे । जब भगवान् गोदोहिका तथा उत्कटुक आसन से बैठे हुए होते तब वे उनको ढकेल देते थे परन्तु भगवान् ने तो शरीर का ममत्व त्याग दिया था इसलिए वे उन सब कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते थे किन्तु उनकी निवृत्ति के लिए विचार तक नहीं करते थे ॥१२॥
. जैसे संग्राम के अग्र भाग में युद्ध करता हुआ वीर पुरुष शत्रुओं द्वारा क्षुब्ध नहीं होता है उसी प्रकार भगवान् महावीर स्वामी उन परीषह उपसर्गो से किञ्चिन्मात्र भी क्षुब्ध नहीं हुए । उन सब को समभाव पूर्वक सहन करते हुए वे अपने व्रतों में निश्चल होकर विचरे थे ॥१३॥ ... भगवान् महावीर स्वामी ने पूर्वोक्त प्रकार से आचरण किया था । इसलिए दूसरे मोक्षार्थी पुरुषों को भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए, ऐसा श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं ॥१४॥
| श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(३३९