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રૂપ-૨સ-ગંધ-સ્પર્શ અને શબ્દ આ પાંચને કામગુણ કહેવાય છે, અને આની પ્રાપ્તિના સાધનભૂત દ્રવ્ય પણ કામગુણ કહેવાય છે, સાધુ આ બન્નેમાં ખરેખર આસક્ત ન થતો એવો શુભ અધ્યવસાયપૂર્વક સ્વયંના આયુના કાલને યથાવિધિ સમાપ્ત કરીને સમાધિમરણને પ્રાપ્ત કરે.
ઉપર બતાવેલ ત્રણેય મરણોમાં પરિષહ અને ઉપસર્ગોમાં સમભાવપૂર્વક સહન કરવું તે પ્રધાન અંગ છે. એટલે જે દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાલભાવને અનુસાર ત્રણેમાંથી કોઈપણ મરણનું સેવન ક૨વું તે ઈચ્છિત અભિપ્સિત શુભ ફળને આપવાવાળું છે. જેથી સ્વયંની શક્તિ અનુસાર કોઈ એક મરણનો આશ્રય લેવો તે મોક્ષાર્થીનું કર્તવ્ય છે. આ પ્રકારે શ્રી સુધર્માસ્વામી સ્વયંના શિષ્ય જંબુસ્વામીને કહે છે. ॥ ૨૫ ॥
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भावार्थ:- पादपोपगमन मरणार्थी साधु जीव रहित स्थान पर अपने शरीर को स्थापित करके चारों आहार का त्याग करे और मेरु पर्वत के समान अडोल होकर रहे । फिर आलोचना आदि करके अपने शरीर का त्याग करे । शरीर का त्याग किये हुए साधु को जब कोई परीषह या उपसर्ग प्राप्त हो तो वह यह भावना करे कि मेरा तो यह शरीर ही अपना नहीं है क्योंकि मैंने तो इसका त्याग कर दिया है । जब कि शरीर ही मेरा नहीं तो फिर मुझे परीषह कैसे हो सकता है ? वह धैर्यवान् साधु कर्मरूपी शत्रुओं को विजय करने में परीषहों को अपना सहायक माने ॥२१॥
जब तक यह जीवन है तब तक ही ये परीषह उपसर्ग हैं । शरीर का अन्त हो जाने पर ये नहीं रहेंगे ऐसा समझ कर वह धैर्यवान् साधु उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे ॥२२॥
यदि कोई राजा एवं चक्रवर्ती राजा उस साधु को अत्यधिक मात्रा में काम भोगों का आमन्त्रण करे अथवा राजकन्या देने का प्रलोभन दे तो भी साधु उसकी इच्छा न करे । इसी प्रकार इहलोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी कोई नियाणानिदान न करे किन्तु एक मात्र निर्जरा की इच्छा रखता हुआ अपने चित्त को समाधिस्थ रखे ॥२३॥
जो धन जीवन पर्यन्त दान और भोग करने से नष्ट न हो ऐसे शाश्वत धन से यदि कोई उस साधु को आमन्त्रित करे अथवा कोई देव उस साधु के पास आकर नाना प्रकार की ऋद्धि देने के लिए आमन्त्रित करे तो भी साधु उनमें आसक्त न बने। इसी प्रकार यदि कोई देवाङ्गना मुनि को प्रार्थना करे तो मुनि उसे स्वीकार न करे किन्तु वह साधु इन सब को माया समझ कर इन से दूर रहता हुआ समाधिभाव में स्थित रहे ॥२४॥
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द ये पांच कामगुण कहलाते हैं और इनकी प्राप्ति के साधन भूत द्रव्य भी कामगुण कहलाते हैं, साधु इन दोनों में ही आसक्त न होता हुआ शुभ अध्यवसाय पूर्वक अपने आयु के काल को यथाविधि समाप्त कर समाधि मरण को प्राप्त होवे ।
भक्त परिज्ञा, इङ्गित मरण और पादपोपगमन इन तीनों ही मरणों में परीषह और उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना प्रधान अङ्ग है । इसलिए द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार तीनों में से किसी भी मरण का सेवन करना अभीप्सित शुभ फल का देने वाला है । अतः अपनी शक्ति के अनुसार किसी एक का आश्रय लेना मोक्षार्थी का कर्तव्य है । इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी कहते हैं ॥२५॥
श्री आचारांग सूत्र ७७७७७७७७७७७७७७७७) ३०७)