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होकर मृत्यु कालपर्यन्त धर्म शुक्ल ध्यान ध्याता हुआ वह मुनि मरण काल के पश्चात् या तो मोक्ष को प्राप्त होता है अथवा स्वर्ग को प्राप्त होता है ।
"यहाँ तक भक्तपरिज्ञा मरण का कथन किया गया है । अब इस गाथा के उत्तरार्द्ध से इङ्गित मरण का कथन किया जाता है:- इस इङ्गित मरण में चारों आहार का त्याग किया जाता है । विशिष्ट धैर्य और विशिष्ट संहनन से युक्त, संयमी और कम से कम नौ पूर्व के ज्ञाता पुरुषों द्वारा यह मरण स्वीकार किया जाता है ॥११॥
प्रथम दीक्षा ग्रहण करना, संलेखना करना, स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन करना आदि जो क्रम भक्तपरिज्ञा में बतलाया गया है वही क्रम इङ्गितमरण के विषय में है परन्तु इसमें विशेष धर्म यह कहा गया है। कि इङ्गितमरण की शय्या पर स्थित साधु दूसरों से सेवा कराने का मन वचन काया रूप तीन योग करना, कराना, अनुमोदना रूप तीन करण से त्याग करे । वह स्वयमेव उस शय्या पर उलटना या करवट बदलना आदि करे किन्तु दूसरे की सहायता न ले ॥१२॥
जहाँ हरित वनस्पतिकाय के जीव हों वहाँ वह साधु शयन न करे किन्तु जो भूमि जीवों से रहित हो उसे अच्छी तरह देख भाल कर उस पर शयन करे । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की उपधि का त्याग कर निराहार रहते हुए उस साधु को यदि परीषह उपसर्ग उत्पन्न हों तो वह उन्हें धैर्य के साथ समभाव पूर्वक सहन करे किन्तु क्षोभ को प्राप्त न होवे ॥१३॥
इङ्गित मरणार्थी साधु की इन्द्रियाँ आहार के अभाव में जब ग्लानि को प्राप्त हों तो वह व्याकुलता को प्राप्त न हो किन्तु अपने चित्त में समता को स्थापित करे । वह साधु जिस तरह से चित्त में समाधि रहे तरह से अपने शरीर को रखता है यानी हाथ पैर को संकुचित रखने से जब धबराहट होती है तब वह हाथ पैर को पसार देता है और उससे भी जब उकता जाता है तो भी वह अपने द्वारा ही समस्त चेष्टाएँ करता है इसलिए वह अनिन्दनीय ही बना रहता है । वह यद्यपि इंगित प्रदेश में चलता फिरता है किन्तु वह उस इंगित मरण से • विचलित नहीं होता है इसलिए वास्तव में वह अचल ही है तथा धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान में अपना चित्त रखता - है, इसलिए वह समाहित है। वह भाव से अचल है, इस इंगित प्रदेश में भ्रमण आदि करने पर भी कोई दोष नहीं है ॥१४॥
इंगित मरण करने वाला साधु नियमित प्रदेश में गमनागमन तथा शरीर के अङ्गों का संकोच विस्तार कर सकता है । ऐसा करने पर भी कोई दोष नहीं है किन्तु यह कोई नियम नहीं है कि उसे गमनागमनादि क्रियाएँ करनी ही चाहिए किन्तु यदि उसकी शक्ति वैसी हो तो वह सूखे काष्ठ की तरह निश्चेष्ट स्थित रह सकता है ॥१५॥
भावार्थ:- जो मुनि उस तरह की शक्ति न होने के कारण सूखे काठ की तरह निश्चेष्ट पड़ा रहने में असमर्थ हो वह नियमित प्रदेश में गमनागमनादि करे तो कोई दोष नहीं है। इससे भी जब थक जाय तब अपने शरीर को ज्यों का त्यों रखता हुआ स्थित रहे। इस प्रकार स्थित रहने से भी जब खेद होने लगे तो लेट जाय या बैठ जाय ॥१६॥
आसीणेऽलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए । कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरेस ॥ १७ ॥
श्री आचारांग सूत्र ७७७७७७७७७७७७७७७७७०३०१