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________________ (४) मैं दूसरे साधर्मिक साधुओं को आहारादि लाकर न दूँगा और न उनके द्वारा लाये हुए आहारादि को खाऊँगा । किसी किसी साधु का ऐसा अभिग्रह होता है कि मैं अपने परिभोग से बचे हुए आहारादि द्वारा निर्जरा की भावना से दूसरे साधर्मिक साधुओं की वैयावच्च करूँगा । किसी किसी का ऐसा अभिग्रह होता हैं कि - साधर्मिक के द्वारा उसके खाने से बचे हुए आहारादि से किये जाने वाले वैयावच्च को मैं स्वीकार करूंगा । इस प्रकार अभिग्रह धारण करने वाला साधु अपने कर्मो को लघु बनाता हुआ समभाव को धारण करे और शुद्ध संयम का पालन करता हुआ ग्रहण किये हुए अभिग्रह पर दृढ़ रहे ॥ २२५ ॥ तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षुरचेलः संचेलो वा शरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा आयुः-शेषतामवगम्य उद्यतमरणं विदध्यादिति दर्शयितुमाह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टिज्जा ( २ ) कसाए पयगुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे अणुपविसिंत्ता गामं वा नगरं वा जाव रायहाणि वा तणाई जाइजा जाव संन्थरिजा, इत्थवि समए कायं च जोगं च ईरियं च पच्चक्खाइज्जा, तं सच्चं सच्चावाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आईय अणाईए चिच्चाणं भेउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणाए भेरवमणुचिन्ने तत्थवि तस्स कालपरियाए, सेवि तत्थ विअन्तिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं. त्ति बेमि ॥२२६॥ यस्य भिक्षोरेवं भवति - अथ ग्लायामि च खल्वहम् अस्मिन् समये न शक्नोमि इदं शरीरकमानुपूर्व्या परिवोढुं स आनुपूर्व्या आहारं संवर्तयेत् संक्षिपेत् । आनुपूर्व्या आहारं संवृत्यं कषायान् प्रतनुकान् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी फलकापदर्थी वाऽभ्युद्यतमरणार्थमुत्थाय भिक्षुरभिनिर्वृत्तार्चः अनुप्रविश्य ग्रामं वा नगरं वा यावद् राजधानीं वा तृणानी यांचेत् । याचित्वा यावत् संस्तरेत् । संस्तीर्य तृणानि चाऽत्रापि समये संस्तारकमारुह्य सिद्धसमक्षं स्वतंः पञ्चमहाव्रतारोपणं (२८८ooooooo श्री आचारांग सूत्र 1
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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