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का समूह तथा मकड़ी आदि के जाले न हों। ऐसी भूमि पर उन तृणों को बिछावे । तृणों को बिछाने के पहले उस भूमि को अपनी आंखों से अच्छी तरह देख ले और फिर रजोहरण से पूंज ले फिर उच्चार प्रस्रवण की भूमि को देख ले । इसके पश्चात् पूर्व दिशा की तरफ मुंह करके उस संस्तारक पर स्थित हो जाय । फिर इंगित मरण को स्वीकार करे । अपनी प्रतिज्ञा का जीवन पर्यन्त पालन करता हुआ तथा विविध प्रकार के परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करता हुआ वह साधु इस नश्वर शरीर का त्याग करे । ऐसा करता हुआ साधु इंगित मरण को प्राप्त होता है । काल का ज्ञान रखने वाले साधु के लिए यही काल का अवसर है क्योंकि काल प्राप्त इंगितमरण मरने वाला साधु सुगति को प्राप्त होता है ॥२२२॥ (१) ग्राम - जहां राज्य की तरफ से अठारह प्रकार का कर (महसूल) लिया जाता हो उसे ग्राम कहते हैं। (२) नगर (नकर) - जहाँ गाय बैल आदि का कर (महसूल) न लिया जाता हो उस बड़ी आबादी को नगर
(नकर) कहते हैं। (३) खेड (खेटक) - जिस आबादी के चारों ओर मिट्टी का परफोटा हो उसे खेड़ या खेड़ा कहते हैं। .. (४) कब्बड (कर्बट) - थोड़ी आबादी वाला गांव कर्बट कहलाता है। (५) मडम्ब - जिस गांव से ढाई कोस की दूरी पर दूसरा गांव हो उसे मडम्ब कहते हैं। (६) पाटण (पत्तन) - व्यापार वाणिज्य का बड़ा स्थान, जहाँ सब वस्तुएँ मिलती हों उसे पाटण कहते हैं ।, (७) द्रोणमुख - समुद्र के किनारे की आबादी, जहाँ जाने के लिए जल और स्थल दोनों प्रकार के मार्ग हो
वह द्रोणमुख (बन्दरगाह) कहलाता है। (८) आगर (आकर) - सोना चांदी आदि धातुओं के निकलने की खान को आगर कहते हैं। (९) आश्रम - तपस्वी संन्यासी आदि के ठहरने का स्थान आश्रम कहलाता है । (१०) सन्निवेश - जहाँ सार्थवाह अर्थात् बड़े बड़े व्यापारी बाहर से आकर उतरते हों उसे सनिवेश कहते हैं। (११) निगम - जहाँ अधिकतर व्यापार वाणिज्य करने वाले महाजनों की आबादी हो, उसे निगम कहते हैं। (१२) राजधानी - जहाँ राजा स्वयं रहता हो, वह राजधानी कहलाती है ।
सप्तम उद्देशकः) છઠ્ઠા ઉદેશામાં ઈગિતમરણનું કથન કરેલ છે હવે આ ઉદ્દેશામાં પાદપોપગમન મરણનું કથન તથા સાથે સાથે પ્રતિમાઓનું પણ કથન કરાશે.
छठे उद्देशक में इंगित मरण का कथन किया गया है। अब इस सातवें उद्देशक में पादपोगमन मरण का कथन किया जायेगा और साथ ही साथ प्रतिमाओं का कथन भी किया जायेगा । अनन्तरमिङ्गितमरणभिहितम् इहापि अभिग्रहाधिकारो वर्तते -
. जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए ।
(२८२ )OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO | श्री आचारांग सूत्र