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________________ भावार्थ:- अल्पशक्ति होने के कारण जिस साधु के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि - मुझको रोग उत्पन्न हो गया है जिससे मैं बहुत कष्ट पा रहा हूँ अथवा काम जनित बाधा मुझे पीड़ित कर रही है जिसको सहन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ अथवा स्त्री मेरे चारित्र को नष्ट करना चाहती है, मैं इससे अपने चारित्र की रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसे समय में साधु वैहायस आदि अपवाद मरण को स्वीकार करे किन्तु चारित्र को दूषित न करे क्योंकि चारित्र को दूषित करने की अपेक्षा मरण ही श्रेयस्कर है । यद्यपि वैहायसादि मरण को बालमरण कहा है तथापि द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से वही पण्डितमरण भी हो जाता है । अतः उक्त अवसर में . वैहायसादि मरण भी भारी गुण के लिए होता है। इस मरण से भी उनका हित, सुख और कर्मो का क्षय होता है । अतः यह मरण अवसर प्राप्त है ॥२१५॥ पंचम उद्देशकः ) ચોથા ઉદ્દેશામાં વૈહાયસાદિ મરણ બતાવ્યું હવે આ ઉદ્દેશામાં ભક્તપરિજ્ઞા મરણ बतावे छे. चौथे उद्देशक में पैहायसादि मरण बताये गये हैं । अब इस पांचवें उद्देशक में भक्तपरिज्ञां मरण बताया जाता हैं :अनन्तरं वेहानसादिकमुपन्यस्तम्, इह तु ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा यत्कर्तव्यं तदाह जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतईएहिं तस्स णं नो एवं भवइ तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अणेसणिजाई वत्थाई जाइजा जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गिअं, अह पुण एवं जाणिजाउवाइकंते खलु हेमन्ते गिम्हे पडिवण्णे, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिढविज्जा, अहापरिजुन्नाई परिट्ठवित्ता अदुवा संतसत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिचा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अबलो अहमंसि नालमहमंसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, .. से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा (४) आहट्टु २६८)DOOOOOOOOOOOOOOOOcroproomeroen | श्री आचारांग सूत्र
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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