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भावार्थः- कितनेक भद्र लोग साधु के आचार की अनभिज्ञता के कारण साधु के निमित्त अशनादि तैयार कराते हैं किन्तु जब साधु को इस बात का पता लग जाता है तो वह उस अशनादि को ग्रहण नहीं करता है तब वे कुपित हो जाते हैं और साधु को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं । उस समय साधु को चाहिए कि उन कष्टों को धैर्य और समभाव पूर्वक सहन करे परन्तु अपने संयम में किसी प्रकार का दोष न आने देवे । यदि अवसर हो तो साधु उस पुरुष को समयानुसार उपदेश देवे अन्यथा मौन रह कर उन परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे । ऐसा मुनि शीघ्र ही संसार सागर से पार हो जाता है; ऐसा श्री तीर्थङ्कर भगवान ने फरमाया है ॥२०४॥
न केवलं गृहस्थेभ्यः अकल्प्यमिति न गृह्यते येऽपि असमनोज्ञाः तेभ्यो दातुमपि न कल्पत इत्याह - . से समणुन्ने असमणुन्नस्स असणं वा जाव नो
पाइजा नो निमंतिजा नो कुञा वेयावडियं परं __ आढायमाणे त्ति बेमि ॥२०५॥
स समनोज्ञः असमनोज्ञाय अशनं वा यावन्नो प्रदद्याद् नो निमन्त्रयेद् नो कुर्याद् वैयावृत्त्यं परम् आद्रियमाण इति ब्रवीमि ॥ २०५ ॥
.. अन्वयार्थ :- से - ते समणुण्णे - समन भेटले 3 तीर्थ-२प्रभुनी मानुं पालन ४२नारी साधु असमणुण्णस्स - असमनोज भेटले. कुशीculहने असणं - Hशन जाव - यावत् वस्त्र पात्र णो पाइज्जा - न मापे भने णो णिमंतिज्जा - ५q। भाटे भामंत्र॥ ५९न ३ तथा परं आढायमाणे - अत्यंत मा६२ ४२॥ भे! वेयावडियं - तेनी वैयाक्थ्य-सेवा णों कुज्जा - न ३.
ભાવાર્થ - તીર્થંકરપ્રભુની આજ્ઞાનું પાલન કરવાવાળા શુદ્ધ સંયમી સાધુ કુશીલાદિ અને અન્યતીર્થિને આહાર-પાણી આદિ ન આપે અને તેઓની સેવા પણ ન કરે. I/૨૦પી.
भावार्थः- तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला शुद्ध संयमी साधु कुशीलादि को आहार पानी न दे और उनकी सेवा भी न करे ॥२०५॥ . . किम्भूतस्तर्हि किम्भूताय दयादित्याह -
धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुन्नस्स असणं वा जाव कुजा वेयावडियं परं
आढायमाणे त्ति बेमि ॥ २०६ ॥ धर्मम् आजानीत प्रवेदितं माहनेन मतिमता यथा समनोज्ञः समनोज्ञाय अशनं वा यावत् प्रदद्यात् कुर्याद वैयावृत्यं परम् आद्रियमाण इति ब्रवीमि ॥ २०६ ॥ .
|श्री आचारांग सूत्र 000000000000000000000000000७(२५७