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________________ નરક-લોક-પરલોક-આદિના અસ્તિત્ત્વનો સ્વીકાર કરે છે અને કેટલાક લોકો અસ્તિત્ત્વનો સ્વીકાર કરતા નથી, કેટલાક લોકો નિત્ય કહે, કેટલાક લોકો અનિત્ય કહે છે. આ પ્રકારે તે અન્યતીર્થિ લોકો એકાંતપક્ષને ગ્રહણ કરીને પરસ્પર વિવાદ કરતા એવા સ્વયં-સ્વયંના મતની પ્રશંસા કરે છે અને બીજાઓના મતની નિંદા કરે છે. જેથી એકાંતવાદિઓનો ધર્મ સ્વાખ્યાતધર્મ નથી, જેથી અનેકાંતધર્મ-સ્વાદ્વાદ ધર્મ જ ખરેખર स्वाण्यात धर्म छ भने ते ४ अड! ४२१॥ योग्य छे. ॥ १८८ ॥ भावार्थ :- इस जगत् में जिन लोगों को अशुभ कर्म का उदय होता है वे मोक्षापयोगी आचार को भली भाँति नहीं जानते हैं । वे गृहस्थावास छोडकर भी शुद्ध संयम का पालन नहीं करते हैं। संयम की क्रियाओं से घबरा कर वे आरम्भादि में प्रवृत्ति करने लग जाते हैं और वे अदत्त को भी ग्रहण करने लग जाते हैं तथा वे मिथ्या भाषण भी करते हैं। उनमें से कुछ वादी लोग जीव अजीव स्वर्ग नरक लोक परलोक आदि के अस्तित्त्व को स्वीकार करते हैं और कुछ लोग अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। कोई लोक को नित्य कहते हैं तो कोई अनित्य कहते हैं । इस प्रकार वे अन्यतीर्थि लोग एकान्त पक्ष को ग्रहण कर परस्पर विवाद करते हुए अपने अपने मत की प्रसंशा करते हैं और दूसरों के मत की निन्दा करते हैं । अतः एकान्तवादियों का धर्म स्वाख्यात धर्म नहीं है । अतः अनेकान्त धर्म-स्याद्वाद धर्म ही स्वाख्यात है और वही ग्राह्य है ॥ १९९ ॥ . . किम्भूतस्तर्हि सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह - से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपण्णेणं जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओ गोयरस्स त्ति बेमि सम्वत्थ सम्मयं पावं, तमेव उवाइक्कम्म एस महं विवेगे वियाहिए गामे वा अदुवा रण्णे णेव गामे णेव रण्णे धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिण्णि उदाहिया जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया, जेह णिबुया पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया ॥२००॥ _ तद्यथा इदं - स्याद्वादरूपं वस्तुस्वरूपं भगवता प्रवेदितम् आशुप्रज्ञेन केवलिना जानता पश्यता । किञ्च - तेषामेकान्तवादिनां सम्यगुत्तरं देयम् अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य विधेयेति ब्रवीमि । वादायोत्थितान् वादिन एवं च ब्रूयात्, तथा - भवतां सर्वत्र सम्मतं पापं, मम तु नैतद् । तदेव - एतत् पापानुष्ठानम् उपातिक्रम्य अतिलय व्यवस्थितोऽहमतो एष मम विवेको व्याख्यातः । जीवाजीवादिपरिज्ञाने सम्यगनुष्ठाने च सति भवति धर्मो ग्रामेऽथवारण्ये, विवेकाभावे नैव ग्रामे नैव श्री आचारांग सूत्र 0900000000000000000000000000(२४७)
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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