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રૂદન કરે છે. તો પણ તે એ દુઃખોના કારણભૂત વિષયોને અને ગૃહવાસને છોડી શકતા નથી, આ સંસારમાં સ્વયંએ કરેલા કર્મોના ફળને ભોગવવા માટે ગંડમાળ-મૂછ-કોઢમૃગી આદિ વિવિધ પ્રકારના રોગોથી પિડાતા થતા રહે છે. જેથી શાસ્ત્રકાર ઉપદેશ આપે છે કે હે ભવ્યજીવો ! ગૃહવાસ અને વિષયભોગોમાં આસક્ત રહેવાવાળા પ્રાણિયોને વિવિધ રોગોથી પીડિત દેખીને તથા વારંવાર જન્મ-મરણના દુઃખોનો વિચાર કરી એવું કાર્ય કરો જેથી આ રોગના શિકાર ન બનવું પડે અને જન્મ-મરણના 25२थी छुटरी 25 . ॥ १७२-१७६ ॥
भावार्थः- तीर्थंकर भगवान, सामान्य केवली अथवा दूसरे अतिशय ज्ञानी या श्रुतकेवली धर्मोपदेश देते हैं। यद्यपि ये सामान्यतः समस्त प्राणियों के लिए धर्म का उपदेश करते हैं तथापि जो लोग धर्म के प्रति रूचि रखते हैं वे हलुकर्मी जीव ही उनका उपदेश सुन कर धर्माचरण करने के लिए तत्पर होते हैं । किन्तु जो लोग धर्माचरण करने में प्रमाद करते हैं उनकी बुद्धि आत्म कल्याण करने वाली नहीं है । इस विषय को समझाने के लिए शास्त्रकार ने कछुवे का दृष्टान्त दिया है। जैसे कि किसी स्थान में एक सरोवर था । वह लाख योजन का विस्तार वाला था। वह शैवाल और लताओं से ढंका हुआ था। दैवयोग से सिर्फ एक स्थान में एक इतना छोटा सा छिद्र था जिसमें कछुए की गर्दन बाहर निकल सके । उस तालाब का एक कछुआ अपने समूह से भ्रष्ट होकर अपने परिवार को ढूँढने के लिए अपनी गर्दन को ऊपर उठा कर घूम रहा था । दैवयोग से उसकी गर्दन उसी छिद्र में पहुँच गई तब उसने आकाश की शोभा को देखा । आकाश में निर्मल चांदनी छिटक रही थी जिससे ऐसा मालूम पड़ता था कि क्षीर सागर का निर्मल प्रवाह बह रहा है और उसमें तारा गण विकसित के समान दिखाई पड़ते थे। आकाश की ऐसी शोभा को देख कर उस कछुवे ने सोचा कि - इस अपूर्व दृश्य को यदि मेरा परिवार भी देखे तो अच्छा हो । ऐसा सोच कर वह अपने परिवार की शोध के लिए फिर तालाब में घुसा जब उसे उसका परिवार मिल गया तो उस छिद्र-बिल को ढूंढने के लिए निकला परन्तु वह छिद्र उसको फिर नहीं मिला । आखिर उस छिद्र को ढूंढते वह.मर गया ।
- इसका दाान्तिक यह है कि- यह संसार एक सरोवर है । जीव रूपी कछुवा है जो कर्म रूपी शैवाल से का हुआ है। किसी समय मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और सम्यक्त्व की प्राप्ति रूपी अवकाश को प्राप्त करके भी मोह के उदय अपने परिवार के लिए विषय भोग उपार्जन मे ही अपने जीवन को समाप्त करके फिर संसार में भ्रमण करने लगता है : उसको फिर यह सुयोग मिलना बड़ा कठिन है । अतः सैंकड़ों जन्मों में भी दुर्लभ सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्य को एक क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
दूसरा दृष्टान्त वृक्ष का है । जैसे वृक्ष सर्दी, गर्मी, कम्प, शाखा छेदन आदि उपद्रवों को सहन करता हुआ-भी कर्म परवश होने से अपने स्थान को नहीं छोड़ सकता है। इसी प्रकार भारी कर्म जीव धर्माचरण योग्य सामग्री के प्राप्त होने पर भी विषयों में आसक्त होकर नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख भोगते हुए करुण रूदन करते हैं फिर भी वे उन दुःखों के कारणभूत विषयों को एवं गृहवास को नहीं छोड़ते हैं। दुःख का कारण कर्म हैं उनके रहते हुए दुःखों से छुटकारा नहीं हो सकता है। इस संसार में अपने किये हुए कर्मो के फल को भोगने के लिए गण्डमाला, मूर्छा, कोढ़, मृगी आदि नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित होते रहते हैं। अतः शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि हे भव्य जीवो ! गृहवास एवं विषयभोगों में आसक्त रहनेवाले प्राणियों को नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित देख कर तथा बारबार जन्म मरण के दुःखों को विचार कर ऐसा कार्य करो जिससे इन रोगों का शिकार न बनना पड़े और जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा हो जाय ॥१७२ से १७६॥
आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(२११)