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इसलिए उनका वाचक कोई पद नहीं है । तात्पर्य यह है कि पदों के द्वारा जिनका कथन किया जाता है उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि में से कोई अवश्य होता है परन्तु मुक्तात्मा में इन सब का अभाव है ॥१७०॥ अनन्तरं दीर्घ इत्यादि विशेष निराकरणं कृतम् । इह तु सामान्यनिराकरणं कर्तुकाम आह -
से ण सद्दे ण रूवे ण गंधे ण रसे ण फासे इच्चेयावंति त्ति बेमि ॥ १७१ ॥ स न शब्दरूपः, न रूपात्मा, न गन्धः, न रसः, न स्पर्श इत्येवेति ब्रवीमि ॥ १७१ ॥
अन्वयार्थ :- से - ते भरतपण सद्दे - न श छ. ण रूवे - न ३५छ ण गंध - न गंजे ण रसे - न. २से छे भने ण फासे - न स्पर्श छ, इच्चेयावंति - मा माटा જ વસ્તુના ભેદ છે પરંતુ મુક્ત જીવમાં આનામાંથી કાંઈ પણ મેળવી શકાતું નથી, ત્તિ बेमि - मा प्रभारी ईई ..
ભાવાર્થ:- શબ્દ-રૂપ-રસ-ગંધ અને સ્પર્શ પુદ્ગલના ગુણ છે અર્થાત આ બધા પુદ્ગલ જડમાં જ દેખાય છે. પરંતુ મુક્તજીવમાં આમાંથી કોઈ પણ દેખાતા નથી. એટલે તેનો વાચક કોઈ શબ્દ નથી. તેની અવસ્થા શબ્દો દ્વારા અવર્ણનીય છે. ॥१७॥
भावार्थः- शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पुद्गल के गुण हैं अर्थात् ये सब पुद्गल-जड़ में ही पाये जाते हैं किन्तु मुक्त जीव में इन में से कुछ भी नहीं पाया जाता है इसलिए उसका वाचक कोई शब्द नहीं है। उसकी अवस्था शब्दों द्वारा अवर्णनीय है ॥१७१॥
२०६)00OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO |श्री आचारांग सूत्र