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________________ य आत्मा स विज्ञाता, यो विज्ञाता स आत्मा, येन विजानाति स आत्मा । तं ज्ञानपरिणामम् प्रतीत्य आत्माऽऽत्मना प्रतिसङ्ख्यायते-व्यपदिश्यते । एष ज्ञानाऽऽत्मनोरेकत्वस्याऽभ्युपगन्ता आत्मवादी स्यात् । तस्य च सम्यग्भावेन शमितया वा पर्यायः संयमानुष्ठानरूपो व्याख्यात इति ब्रवीमि ॥१६५॥ अन्वयार्थ :- जे - ४ आया - सात्मा छे से - ते ४ विण्णाया - विशात विशेष पावणो छ भने जे - ४ विण्णाया - विdu छे से - ते ४ आया - मात्मा छ, जेण - नाथ. वियाणइ - पार्थाने से छे से - ते आया - मात्मा छ, तं पडुच्च - ते शान परिमन। २) पडिसंखाए - मात्मा शानवान् ४३वाय छे, एस - शानथी अभिन्न मात्माने माने छे ते आयावाई - मात्मवाही छे, ते पु३षनो समियाए - सभ्य परियाए - संयम पर्याय वियाहिए - 58. ॐ त्ति बेमि - २॥ प्रभारी ईई . ભાવાર્થ-જ્ઞાન આત્મરૂપી દ્રવ્યનો સહજ અસાધારણ ગુણ છે એટલે શાસ્ત્રકાર 53 छ : 'जे आया से विण्णाया' अर्थात नित्य भने उपयोग३५ ४ मात्मा छे ते ४. વિજ્ઞાતા છે અર્થાત્ વસ્તુઓને જાણવાવાળો પણ તે જ છે. કારણ કે જીવનું લક્ષણ ઉપયોગ છે અને ઉપયોગ જ્ઞાનરૂપ છે, આ પ્રમાણે જ્ઞાન અને આત્માનો અભેદ સંબંધ છે. આ આત્મા જ્ઞાન પરિણામના કારણે મતિજ્ઞાની શ્રુતજ્ઞાની-કેવલજ્ઞાની આદિ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે જે પુરૂષ જ્ઞાન અને આત્માને અભિન્ન જાણે છે. તે જે આત્મવાદી છે. थी तेनु संयमानुष्ठान सम्य५ . ॥ १६५॥ - भावार्थः- ज्ञान आत्मरूपी द्रव्य का पर्याय है इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि 'जे आया से विण्णाया' अर्थात् नित्य और उपयोग रूप जो आत्मा है वही विज्ञाता है अर्थात् वस्तुओं को जानने वाला भी वही है। क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है और उपयोग ज्ञान रूप है । इस प्रकार ज्ञान और आत्मा का अभेद सम्बन्ध है। यह आत्मा ज्ञान परिणाम के कारण मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी आदि कहा जाता है । इस प्रकार जो पुरुष ज्ञान और आत्मा को अभिन्न होता जानता है वही आत्मवादी है । अत एव उसका संयमानुष्ठान सम्यक् है ॥१६५॥ षष्ठं उद्देशकः । પાંચમાં ઉદ્દેશામાં કહ્યું કે આચાર્યોએ તલાવ સમાન હોવું જોઈએ, હવે આ ઉદેશામાં બતાવે છે આચાર્યોના સંપર્ક-સત્સંગથી જ કુમાર્ગનો ત્યાગ અને રાગ-દ્વેષની હાનિ થાય છે. पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि आचार्य को तालाब के समान होना चाहिए । अब छठे उद्देशक में यह बतलाया जाता है कि ऐसे आचार्य के सम्पर्क से ही कुमार्ग का त्याग और राग द्वेष की हानि होती है। अनन्तरं सम्यग्भावेन संयमानुष्ठानरूपः पर्यायो व्याख्यातः, इहापि स एव प्रतिपाद्यते - .. . अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे एरुव ट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तद्दिट्टीए (१९८)DROIDROIDIOIDROIDIOCHOOTOIDIOCTOCTOIDIODIODOOR | श्री आचारांग सूत्र
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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