SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१) प्रव्रज्या के समय किसी पुरुष की “वही सत्य और निःशङ्क है जो सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने फरमाया है। ऐसी सम्यक् श्रद्धा होती है और पीछे भी सम्यक् ही श्रद्धा रहती है। (२) किसी की श्रद्धा प्रव्रज्या के समय तो सम्यक् होती है किन्तु पीछे असम्यक्-मिथ्या हो जाती है। (३) किसी पुरुष की श्रद्धा पहले तो असम्यक् (मिथ्या) होती है किन्तु प्रव्रज्या के बाद उसकी श्रद्धा सम्यक् हो जाती है। (४) किसी पुरुष की श्रद्धा पहले भी असम्यक् होती है और पीछे भी असम्यक् ही रहती है। . संयम में उद्यम करने वाले पुरुष की श्रेष्ठ गति को और संयम में शिथिलता करने वाले तथा असंयम में प्रवृत्ति करने वाले पुरुष की बुरी गति को देख कर विवेकी पुरुष को चाहिए कि वह अपनी आत्मा को असंयम में प्रवृत्त न होने दे और संयम में किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता न करते हुए एक क्षण भर भी प्रमाद न करे ॥१६३॥ शाक्यकापिलादिभावितो बालो बालभावमाचरति, वक्ति च नित्यत्वादमूर्तत्वाचात्मनः प्राणातिपात एव नास्ति, आकाशस्येव, इत्यायध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तत्प्रतिषेधार्थमाह तुमंसि णाम तं चेव जं हंतव्वंति मण्णसि, तमंसि णाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मण्णसि, तुमंसि णाम तं चेव जं परियावेयव्वंति मण्णसि, एवं जं परिघेत्तव्यंति मण्णसि, जं उद्दवेयव्यंति मण्णसि, अंजू चेयं पडिबुद्धजीवी, तम्हा ण हंता णावि घायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्वं णाभिपत्थए ॥१६४॥ त्वमपि नाम स एव यं हन्तव्यमिति मन्यसे, त्वमपि नाम स एव यं आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे । एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे, यम् अपद्रावयितव्यमिति मन्यसे असौ त्वमेव । ऋजुः - साधुश्च एतत्-हन्तव्यघातकैकत्वं तस्य प्रतिबोधेन जीवितुं शीलमस्येति एतत्प्रतिबुद्धजीवी भवति । तस्मात् न हन्ता स्यात् नापि घातयेत् । अनुसंवेद्यमाऽऽत्मना इत्याकलय्य यत् किमपि हन्तव्यमिति नाभिप्रार्थयेत् ॥ १६४ ॥ अन्वयार्थ :- जं - ॐने हंतव्वं ति मण्णसि - तमो भा२१॥ योग्य मानो छो, तं चेव - सच्चेव - ते तुमंसिणाम - तमे ४ छो, जं - ४ने अज्जावेयव्वं ति मण्णसि - तमे भाशा माया योग्य समठो छो तं चेव-सच्चेव - ते तुमंसि णाम - तमे ४ छो, जं - ने परियावेयव्वंति मण्णसि - तमो परित५ हेवा योग्य मानी २६॥ छो, तं चेव-सच्चेव - ते तुमंसि णाम - तमे ४ छो, एवं - 40 प्रभा. जं - ॐने परिघेतवं ति मण्णसि - तमो परिन। ३५थी. २।भागो छो च - मने जं - ॐने उद्दवेयव्वंति मण्णसि - तमो (१९६JPOOTOOTOOTOOTOOTOOTOOTOOTOOTOOOOOOOOO | श्री आचारांग सूत्र
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy