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________________ વિચારવું જોઈએ કે તેઓ સ્વયંને સ્ત્રી સંગથી સદા અલગ રાખે, તેની કથા ન કરે, તેમાં મમત્વભાવ ન રાખે અને તેની વૈયાવચ્ચ આદિ ન કરે, આ પ્રકારે સ્ત્રીના સંગથી સ્વયંના આત્માની રક્ષા કરતો એવો સાધુ શુદ્ધ સંયમનું પાલન કરે. / ૧૫૯ // भावार्थ :- कर्मों के विपाक को देखने वाला, संसार के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला, उपशान्त, समिति युक्त, ज्ञानादि गुणों सहित और छह काय जीवों का रक्षक मुनि शीघ्र ही कर्मों का अन्त कर देता है, ऐसे मुनि पर यदि स्त्री आदि के परीषह आवे तो भी वह अपने संयम से विचलित न होवे किन्तु संयम में दृढ़ रहे । इस प्रकार संयम में विचरण करते हुए साधु की इन्द्रियाँ यदि उसे पीड़ित करें तो साधु निःसार एवं अन्त प्रान्त आहार करे । इससे भी यदि शान्ति न हो तो आतापना आदि लेकर शरीर को कष्ट दे । इतने पर भी यदि इन्द्रियाँ शान्त न हों तो उस गांव को छोड़ कर अन्यत्र विहार कर जाय । जब किसी प्रकार भी विषय की शान्ति न हो तो साधु आहार ग्रहण करना भी छोड़ दे । इस प्रकार उसके शरीर का विनाश भी हो जाय तो अच्छा है किन्तु साधु विषय सेवन की कदापि इच्छा न करे । जो स्त्रीसङ्ग की इच्छा करता है उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । स्त्रीलम्पट दुराचारी पुरुष इस लोक में डंडों से पीटे जाते हैं और उनके हाथ पैर आदि अङ्ग काट दिये जाते हैं । यह तो इस लोक में कष्ट होता है और परलोक में उसे नरकादि का असह्य दुःख भोगना पड़ता है। अतः विवेकी पुरुष को चाहिए कि वह अपने को स्त्रीसङ्ग से सदा अलग रखे, उनकी कथा न करे, उनमें ममत्व न करे और उनकी वैयावच्च आदि न करे । इस प्रकार स्त्रीसंग से अपनी आत्मा की रक्षा करता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे ॥ १५९ ॥ .. पंचम उद्देशकः । ચોથા ઉદેશામાં મુનિ એકલો વિહાર કરે તો હાનિ જે થાય છે તે બતાવીને એકલા વિહાર કરવાનો નિષેધ બતાવેલ છે. આ ઉદ્દેશામાં એ બતાવે છે કે સાધુએ સદાને માટે આચાર્યની સમીપ (નજદીક) માં રહેવું જોઈએ. चौथे उद्देशक में एकलविहार की हानियाँ बताकर उसका निषेध किया, अभी यह उद्देशक में बताया जाता है कि साधु को सदा आचार्य के समीप ही रहना चाहिए। अनन्तरोक्तं मौनमनुवासयमान आचार्यो भवति तेन च हृदोपमेन भाव्यमित्याह से बेमि तंजहा - अवि हरए पडिपुण्णे समंसि .' भोमे चिट्ठइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमज्झगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्ति बेमि ॥ १६०॥ |श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(१८९
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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