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भावार्थ :- पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला मुनि सावध कर्म का अनुष्ठान न करे । सम्यग् ज्ञान होने पर पाप कर्म का त्याग और संयम का अनुष्ठान होते है इसलिए कारण और कार्य को अभिन्न मान कर शास्त्रकार फरमाते हैं कि - जो सम्यग ज्ञान है वही संयम का अनुष्ठान है और जो संयम का अनुष्ठान है वही सम्यग् ज्ञान है।
संयम का पालन करना सरल नहीं है । हर एक प्राणी संयम का पालन नहीं कर सकता है । तप संयम में शिथिल, स्त्री पुत्रादि में ममत्व रखने वाला, शब्दादि विषयों में गृद्ध, मायावी और प्रमादी पुरुषों से समस्त पापों के त्याग रूप संयम का पालन नहीं हो सकता है किन्तु संसार के स्वरूप को भली भांति जान कर उसका त्याग करने वाले और कर्म विदारण में निपुण मुनि ही संयम का पालन कर सकते हैं। वे अन्त प्रान्त और रूक्ष आहार का सेवन कर संयम यात्रा का निर्वाह करते हैं और तप द्वारा कर्मों का क्षय करके सिद्ध बुद्ध यावत् मुक्त हो जाते हैं ॥ १५५ ॥
चतुर्थ उद्देशकः ત્રીજા ઉદ્દેશામાં બતાવ્યું કે હિંસા-વિષયભોગ અને પરિગ્રહમાં મહાન દોષ છે. જેથી આનાથી જે વિરતી (અટકેલો) છે તે જ મુનિ છે. હવે આ ઉદ્દેશામાં એકલા વિચરવાવાળાના દોષોને બતાવીને તે મુનિ નથી, તેનું કારણ બતાવે છે.
तीसरे उद्देशक में बतलाया गया है कि हिंसा, विषयभोग और परिग्रह में महान् दोष है अतः इनसे जो विरत है वही मुनि है । अब चौथे उद्देशक में अकेले विचरने वाले के दोषों को बता कर उसके मुनि न होने का . कारण बताया जाता है :- . . अनन्तरं विरत एव मुनिर्भवतीति प्रतिपादितम् । इह एकचरस्य मुनित्वाऽभावे दोषोभावनतः कारणमाह -
. गामाणुगामं दुइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परक्कंतं
भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥ १५६ ॥ . __ग्रामानुग्रामं दूयमानस्य-विहरतो दुर्यातम् अर्हनकस्येव दुष्टव्यन्तरीजङ्घाछेदवत्, दुष्पराक्रान्तं - स्थूलभद्रेाश्रितोपकोशागृहसाधोरिव दुष्टं पराक्रान्तं स्थानमेकाकिनो भवति अव्यक्तस्य श्रुतवयोभ्याम् भिक्षोरिति ॥१५६॥
अन्वयार्थ :- गामानुगामं - मे मथी श्री. म. १२६ दुइज्जमाणस्स - ४ · भे भेटले 3 वियरता भे॥ अवियत्तस्स - शास्त्र भने अवस्थामा म२ि५४५
भिक्खुणो - साधुनु दुजायं दुप्परक्कतं भवइ - मन भने स्थान ५२।५ डोय छे. ... भावार्थ :- साधु शास्त्रमा भने अवस्थामा (५याय) मा ५२५७१ नथी,
અર્થાત્ આચાર પ્રકલ્પનો અર્થ નથી જાણતો અને અવસ્થામાં નાનો છે. તે જો ગચ્છથી
|श्री आचारांग सूत्र 000000000000000000000000000७(१८१)