SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवेकी पुरुष को विचारना चाहिये कि - आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल में उत्पत्ति, सम्पूर्ण इन्द्रियों से सम्पन्नता, श्रद्धा और संवेगरूप अवसर प्राप्त होना बड़ा ही दुर्लभ है । अतः इन्हें प्राप्त करके क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । प्रत्येक प्राणी के सुख दुःख और अभिप्राय भिन्न भिन्न हैं यह जानने वाला और बिना आरम्भ से जीविका करने वाला विवेकी पुरुष प्राणियों की हिंसा न करता हुआ और मिथ्याभाषण तथा अदत्तादान आदि का त्या करता हुआ पञ्च महाव्रतों का पालन करे और पञ्च महाव्रतों का पालन करते हुए जो परीषह उपसर्ग आवें उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे ॥ १४६ ॥ यो हि सम्यक्करणतया परिषहान् सहते स किंगुणः स्यादित्याह . एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इइ उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासए, से पुव्विपेयं पच्छापेयं, भेउरधम्मं विद्धंसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं, चयावचइयं विष्परिणामधम्मं, प्रासह एयं रूवसंधि 1198011 एष सम्यक् शमिता वा- शमिनो भावो वा पर्यायः - प्रवज्या व्याख्यातः, ये असक्ताः पापेषु कर्मसु कदाचित् तान् आतङ्काः स्पृशन्ति । इति - एतद्वक्ष्यमाणम् उदाहृतवान् धीरः तीर्थकृत् तद्यथा - तान् स्पर्शान् स्पृष्टः सन् अध्यासयेत् सहेत, किमाकलय्येत्याह - स एतद् भावयेत्- पूर्वमप्येतत् पश्चादप्येतद् मयैव सोढव्यं, अपि च एतच्छरीरं भिदुरधर्मं - विध्वंसनधर्ममधुवमनित्यमशाश्वतं चयापचयिकं विपरिणामधर्मं, इत्यत्र का मुर्च्छा ? अपि तु साफल्यं नय, एतदेवाह- पश्यतैनं रूपसन्धिंकुशलाऽनुष्ठानाऽवसरमिति ॥१४७॥ - - अन्वयार्थ :- एस - २॥ ५३ष समिया परियाए - सभ्य पर्यायवाणो वियाहिए - उहेलो छे, या समभावने प्रब्रभ्या पर्याय उह्यो छे. ४ ५३ष पावेहिं कम्पेहिं - पाप જે दुर्भोभां असत्ता - खासडत छे नहीं उदाह - भे उधायित ते तेने आयंका - रोग फुसंति - स्पर्श अरे तो धीरे - धीर पुरषो इइ ख प्रमाणे उदाहु - उडेल छेउ ते - ते फासे - रोगोनो पुट्ठो - स्पर्श थवाथी ते अष्टने अहियासए - समभावपूर्व सहन उरे, से - ते खाप्रमाणे वियारे } पुव्विपेयं - पहेला पण सा भारे ४ लोगववा पड़शे खने पच्छापेयं - पाछ्नथी पए। भारे ४ लोगववा पडशे, भेउरधम्मं - खा खौधारि शरीर पोतानी भेणे ४ लेहवानुं छे विध्दंसणधम्मं - नाश थवावाणुं छे. अधुवं खा ध्रुव छे - १६८००००००००० श्री आचारांग सूत्र ପଥପ
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy