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________________ ___ भावार्थ :- मिथ्यात्व, प्रमाद, अविरति आदि के कारण जिस पुरुष को पूर्वभव में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई है तथा आगामी काल में भी होने वाली नहीं है उसको वर्तमान में भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् जिस.जीव को पूर्वभव में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी है या आगामी जन्म में होने वाली है उसी को वर्तमान समय में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है । जिसने सम्यक्त्व की प्राप्ति कर ली है किन्तु फिर मिथ्यात्व के उदय से सम्यक्त्व से पतित हो गया है उसको अर्द्धपुद्गल परावर्तन में फिर सम्यक्त्व की प्राप्ति अवश्य हो जाती है। अथवा - जो पुरुष विषय भोग के कड़वे परिणाम को जान कर पहले भोगे हुए कामभोगों का स्मरण नहीं करता तथा भविष्य में भी विषय भोग की इच्छा नहीं रखता उसको वर्तमान काल में भी भोगों की इच्छा कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं होती। जो पुरुष सावध आरम्भ का त्याग कर देता है वह उत्तम ज्ञानी है क्योंकि सावध आरम्भ करने वाला जीव नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होता है । जो कर्म किये जाते हैं उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है ऐसा जान कर विवेकी पुरुष कर्मबन्धन के कारणभूत आस्रवों से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं ॥ १३९॥ . न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषां तीर्थकरणामयमाशय इति दर्शयितुमाह - जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सया जया संघडदंसिणो आओवरया अहातहा लोयं उवेहमाणा पाईणं पड़ीणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परिचिट्ठिसु, साहिस्सामो णाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सया, जयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहा लोयं समुवेहमाणाणं, किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जइ ? णत्थि त्ति बेमि ॥ १४० ॥ ये खलु भो ! संघटदर्शिनः पूर्वापरविस्तरदर्शिनो निरन्तरदर्शिनो वा सर्वज्ञा वीरास्ते समिताः सहिताः ज्ञानादिभिः सदा यता निरन्तरदर्शिन आत्मोपरता यथातथं लोकं - चतुर्दशरज्वात्मकं कर्मलोकं वा उपेक्षमाणाः - पश्यन्तः प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणस्यां उदीच्यां व्यवस्थिता इत्येवं सत्येऋते तपसि संयमे वा परिचिते तस्थुः । तेषां सत्यवतां कथयिष्यामि ज्ञानं - अभिप्रायो वीराणां सहितानां सदा यतमानानां निरन्तरदर्शिनाम् आत्मोपरतानां यथातथं लोकं समुपेक्षमाणानाम् किमस्ति उपाधिः कर्मजनितः ? आहोस्विद् न विद्यते ? इति प्रश्ने त ऊचुः - पश्यकस्य न विद्यते, नास्तीति-ब्रवीमि ॥१४०॥ .. अन्वयार्थ :- १३ मा२।४ ४ छ : भो - हे शिष्य ! खलु - निश्चयथ. ४ जे - श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000(१५७)
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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