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મનાય છે પરંતુ કર્મના ઉદયથી જેના અધ્યવસાય અશુભ છે એવા લોકો માટે અપરિગ્નવ એટલે કર્મનિર્જરાના કારણ નથી થતા, તથા જે પરિસવ એટલે પાપબંધના કારણ મનાય છે તે કાર્ય સમ્યગદ્ગષ્ટિ પુરૂષોને માટે નિર્જરાનું કારણ થઈ શકે છે. આ પ્રકારે સંસારના જેટલા પણ પદાર્થ છે. તે બધા અનેક ધર્માત્મક છે. આ પ્રમાણે આશ્રવત્યાગ भने संवरनउपाहान२५. धर्ममा ओ. उधत न थाय ? उधत थाय ४. ॥ १० ॥
___ भावार्थ :- विषयलोलुप जीव अज्ञानवश जिन फल माला और सुन्दर स्त्रियों को सुख का कारण समझते हैं वे उनके कर्मबन्ध के कारण होने से आस्रव हैं और तत्त्वदर्शी पुरुषों के लिए वे ही माला और स्त्री आदि परिस्रव यानी कर्म निर्जरा के कारण हैं क्योंकि वे इन्हें निःसार जान कर त्याग देते हैं । अतः तत्त्वदर्शी पुरुषों को वैराग्य उत्पन्न करने के कारण वे पदार्थ कर्म निर्जरा के कारण हो जाते हैं । इस प्रकार संसार के जितने पदार्थ - हैं व सभी अनेकान्त हैं यह दिखाते हुए इसी बात को उलट कर शास्त्रकार कहते हैं कि - जो परिस्रव हैं वे ही आस्रव हो सकते हैं, अर्थात् सम्यगदृष्टि तत्त्वदर्शी पुरुष के लिए जो कर्म निर्जरा के स्थान हैं वे ही विपरीत बुद्धि मिथ्यादृष्टियों के लिए पाप के कारण हो जाते हैं।
इसी विषय का निषेध दृष्टि से वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि 'जो अनासव हैं वे अपरिस्रव . हैं अर्थात् अनासव यानी व्रत आदि यद्यपि कर्म निर्जरा के कारण माने जाते हैं किन्तु कर्म के उदय से जिनका अध्यवसाय अशुभ है ऐसे लोगों के लिए अपरिस्रव यानी कर्म निर्जरा के कारण नहीं होते हैं तथा जो परिस्रव यानी पापबन्ध के कारण माने जाते हैं वे कार्य सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिए निर्जरा के कारण हो सकते हैं । इस प्रकार संसार के जितने भी पदार्थ हैं वे सभी अनेक धर्मात्मक हैं ।। १३० ॥ ...
एतानि पदानि तीर्थंकरगणधरैः प्रवेदितानि, अन्योऽपि तदाज्ञावर्ती चतुर्दशपूर्वादिः सत्त्वहिताय परेभ्य आवेदयतीत्येद्दर्शयितुमाह -
आघाइ णाणी इह माणवाणं संसारंपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं, अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता अहा सच्चमिणं त्ति बेमि, णाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया कालगहिया
णिचयणिविट्ठा पुढो पुढो जाइं पकप्पयंति ॥ १३१॥ आख्याति ज्ञानी इह मानवानां संसारप्रतिपन्नानां सम्बुध्यमानानां विज्ञानप्राप्तानां - संज्ञिभ्यो मुनिसुव्रतस्वामिघोटकदृष्टान्तेन । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "आघाइ धम्मं खलु से जीवाणं तंजहा संसारपडिवन्नाणं माणुसभवत्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुब्वेअ-सुहेसगाणं धम्मसवणगवेसयाणं सुस्सुसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं' एतच्च प्रायो गतार्थमेव.... नवरमारम्भविनयिनामारम्भविनयः - आरम्भाभावः स विद्यते येषामिति मत्वर्थी मत्वर्थीयस्तेषामिति ।
(१४२ )CTOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO | श्री आचारांग सूत्र