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________________ उवेहाए - वियारी ने अप्पाणं - स्वयंनी खात्माने विप्पसायए संयम अनुष्ठानमां सावधान राजी, प्रसन्न ५२ अणण्णपरमं जधा पहार्थो डरता मोक्षने श्रेष्ठ णाणीभगवावाणो पु३ष कयाइ वि - प्यारेय प णो पमाए - प्रभाह न ४२, वीरे - वीर५३ष सया - हंमेशा आयगुत्ते आत्मगुप्त अर्थात् स्वयंना खात्मानी पापथी रक्षा उरतो जेवो जायामायाइ - संयमना निर्वाह भाटे आहारथी जावए - स्वयंनो निर्वाह रे, महया - महान् भेटले द्दिव्य वा - अथवा खुट्टएहि - क्षुद्र- तुच्छ रूवेसु ३५ोभां विरागं - वैराग्यने गछिज्जा - प्राप्त ५२, आगई - जागति भने गई - गतिने परिणाय - भगीने दोहि - वि अंतेहिं - राग भने द्वेष खेम जन्नेने अदिस्समाणेहिं त्याग उरवावाणी संलिप्त पु३ष लूस थ भय छे अने सव्वलोए - सर्व सोऽमां कंचणं डोना द्वारा ण छिज्जइ - छेहातो नथी. ण भिज्जइ - लेहातो नथी ण डज्झइ - अग्नि खाधिथी सणगावाती नथी ने ण हम्म - गातो नथी. 1 - - ભાવાર્થ :- આ સંસારમાં સંયમથી ચઢિયાતો બીજો કોઈ પદાર્થ નથી તેથી જ સંયમાનુષ્ઠાનમાં મુનિએ પ્રમાદ ન કરવો જોઈયે, સાધુ સ્વયંની ઈન્દ્રિય તથા મનને પાપકાર્યમાં ન જવા દઈને સ્વયંના આત્માની રક્ષા કરે અને જેટલો આહાર કરવાથી સંયમના આધારભૂત શરીરનો નિર્વાહ થઈ શકે તેટલા આહારંથી જ નિર્વાહ કરે પરંતુ અધિક આહારનું સેવન કરે નહીં, મનોજ્ઞરૂપ (સુંદર) રસાદિમાં આસક્ત ન થાય (राग न दुरे) भने अमनोज्ञथी (असुंहर) द्वेष न उरे, परंतु समभाव राजे. आ પ્રકારે શુદ્ધ સંયમનું પાલન કરવાવાળા મુનિ થોડા સમયમાં સર્વ કર્મોનો ક્ષય કરી મોક્ષ सुख प्राप्त रे छे. ॥ ११६॥ :- इस संसार में संयम से भावार्थ: कर दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। अतः संयम के अनुष्ठान में मुनि को प्रमाद न करना चाहिए। साधु इन्द्रिय और मन को पाप में न जाने देकर अपनी आत्मा की रक्षा करे और जितना आहार करने से संयम के आधारभूत शरीर का निर्वाह हो सके उतने से ही अपना निर्वाह करे परन्तु अधिक आहार का सेवन न करे । मनोज्ञ रूप रसादि में आसक्त न होवे और अमनोज्ञ से द्वेष न करे किन्तु समभाव रखे । इस प्रकार शुद्ध संयम का पालन करने वाला मुनि स्वल्प काल में ही समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष सुख को प्राप्त करता है ।। ११६ ॥ अपरे साम्प्रतेक्षिणः कुतो वयमागताः ? क्व यास्यामः ? किं व तत्र नः सम्पत्स्यते ? नैवं भावयन्त्यतः संसार - भ्रमणपात्रतामनुभवन्तीति दर्शयितुमाह - अवरेण पुब्विंण सरंति एगे, किमस्स तीयं किं वाऽऽगमिस्सं । भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स (१२२००००००००००००० श्री आचारांग सूत्र
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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