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દ્વેષ કરે છે. કરંતુ વિવેકી પુરૂષ બંન્નેમાં સમભાવ રાખે છે. કારણ રાગ – દ્વેષ કર્મબંધનું २५ छे ॥ १०६ ॥
भावार्थ :- छहकाय के जीवों से परिपूर्ण इस लोक में अज्ञान ही दुःख का कारण है । इसी से प्राणी इस लोक और परलोक में नानाविध दुःखों को प्राप्त होता है। इसलिए अज्ञान के उन्मूलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए । अज्ञान के वशीभूत होकर जीव प्राणियों की हिंसा करता है एवं विविध पाप उपार्जन करता है उनका फल भोगने के लिए नरकादि गतियों में जाता है । आर्य क्षेत्र, मनुष्य भव आदि का मिलना बड़ा कठिन है । इसे प्राप्त कर अज्ञान के नाश के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
अज्ञानी जीव मनोज्ञ रूप रसादि में राग और अमनोज्ञ में द्वेष करते हैं किन्तु विवेकी पुरुष दोनों में समभाव रखते हैं क्योंकि राग द्वेष कर्म बन्ध के कारण हैं ॥ १०६ ॥
एवं शब्दादीनिह- लोके परत्र च दुःखस्वभावानवगम्य यः परित्येजेदसौ कं गुणमवाप्नुयादित्याह - से आयवं णायवं वेयवं धम्मवं बंभवं पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वच्चे, धम्मविऊत्ति अंजू आवट्टसोए संगमभिजाइ ॥ १०७ ॥
स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् - आगमवान् धर्मवान् ब्रह्मवान्योगिशर्मवान् अष्टादशधा वा ब्रह्मवान् से “आयवी नाणवी" इत्यादि पाठान्तरमाश्रित्य स आत्मविद् ज्ञानंविद् वेदविद् धर्मविद् ब्रह्मवित् प्रज्ञानैः परिजानाति लोकं मुनिरित उच्येत । किञ्च स धर्मविद् ऋजुः आवर्त श्रोतसोः
आवर्तः संसारः श्रोतः - विषयाभिलाषस्तयोः संगं- रागद्वेषाभ्यां सम्बन्धम् अभिजानाति । तत्संगं चानर्थरूपं ज्ञात्वा परिहरतीति ॥ १०७ ॥
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अन्वयार्थ :- से - ते ५३ष आयवं आत्मवान् छे णायवं - णाणयं - ज्ञानवान् छे वेयवं - वेह अर्थात् आयारांगाहि सूत्रोने भगवावाणी छे, धम्मवं - धर्मज्ञ छे बंभवं - ब्रह्मज्ञ छे, ते पण्णाणेहिं - भति जाहि ज्ञानो द्वारा लोयं - लोडने परियाणइ - भएो छे, ते ४ मुणीति - भुनि बच्चे - ऽहेडाववाने योग्य छे, धम्मविउत्ति - ते धर्मवेत्ता छे अंजू - सरण छे, ते आवट्टसोए संग संसार आवर्त राग द्वेषथी थतां संबंध रखने स्रोत विषयाभिलाषना संगने अभिजाणइ - भगे छे.
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ભાવાર્થ – જે આત્મવાન્ જ્ઞાનવાન આદિ ઉપરોકત વિશેષણોવાળા મુનિ છે. તે સંસારના મૂલ કારણ રાગ – દ્વેષને જાણીને તેને છોડી દે છે. અતઃ ખરેખર તે જ વિદ્વાન खने धर्मज्ञ छे ॥ १०७ ॥
भावार्थ :- जो आत्मवान् ज्ञानवान् आदि उपरोक्त विशेषणों वाला मुनि है वह संसार के मूल कारण राग द्वेष को जान कर उन्हें छोड़ देता है। अतः वास्तव में वही विद्वान और धर्मज्ञ है ॥ १०७ ॥
श्री आचारांग सूत्र ७७७७७७७७এএএএ७७) १०७)