________________
रेल ते ण आरभे - भोक्षार्थीने झ्यारेड पाए। डवुं भेईये नहीं, छणं छणं - ठे ठेार्यथी हिंसा थाय छे तेने परिण्णाय - भागीने तेनो त्याग उरी हेवो भेध्ये च - जने सव्वसों - योग अनेत्र इरशोथी लोगसण्णं विषयसुजनी छा जाने परिग्रहनो ત્યાગ કરી દેવો જોઈયે.
-
ભાવાર્થ - કેવલીઓએ તથા વિશિષ્ટ મુનિઓએ મોક્ષ પ્રાપ્તિ માટે જે આચરણ કરેલું છે તેમ મોક્ષાર્થી પુરૂષોએ તે પ્રમાણે જ આચરણ કરવું જોઈએ જે કાર્ય કરવાથી હિંસા થાય છે. તથા જે કાર્યના આચરણનો જ્ઞાનીયોએ નિષિદ્ધ કરેલ છે. તેનું ક્યારેય प। खयर न वुं भेर्धये ॥ १०३ ॥
भावार्थ :- केवलियों ने तथा विशिष्ट मुनियों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जो आचरण किया है मोक्षार्थी पुरुष को वैसा ही आचरण करना चाहिए। जिन कार्यों से हिंसा होती है तथा जिस कार्य का आचरण ज्ञानियों निषिद्ध बतलाया है उसका कदापि आचरण न करे ॥ १०३ ॥
एवंविधस्य सत्पथव्यवस्थितस्य यद्भवति तद्दर्शयति
उद्देसो पासगस्स णत्थि, बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव
.
आवट्टं अणुपरियट्टइ ॥ १०४ ॥ त्ति बेमि ॥
उद्देशः- नारकादिव्यपदेशः पश्यकस्य - परमार्थदृशो नास्ति । बालः पुनः निहः स्निहो वा पूर्ववत् कामसमनोज्ञः अशमितदुःखो दुःखी दुःखानामेवाऽऽ वर्तमनुपरिवर्तत इति ब्रवीमि ॥ १०४ ॥ अन्वयार्थ :- तथा भावार्थ श्लो नंजर ८१ प्रमाणे समं सेj.
भावार्थ :- जो वस्तु स्वरूप को देखने वाला हे उसे पश्यक कहते हैं अथवा केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानने वाले तीर्थंकर भगवान् और उनकी आज्ञा में चलने वाले पुरुष पश्यक कहलाते हैं । इस सब के लिये उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं है । वे स्वतः ही अहित से निवृत्ति और हित में प्रवृत्ति करते हैं । रागादि से मोहित और विषय भोगों में आसक्त अज्ञानी पुरूष शारीरिक और मानसिक दुःखों से सदा पीड़ित होता हुआ संसारचक्र में परिभ्रमण करता रहता है। इसलिए विवेकी पुरुष को रागादि तथा विषय भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ॥ १०४ ॥
(१०४ ०००००००० श्री आचारांग सूत्र