________________
ક્ષય કર્યો છે. તે કારણથી બદ્ધ નથી, અને ભવોપગ્રાહી ચાર અઘાતી કર્મો છે. માટે મુક્ત પણ નથી એટલે જ આવા કુશલ પુરૂષ નથી બદ્ધ અને નથી મુક્ત I/૧૦૨ /
भावार्थ :- धर्मोपदेश करने वाले साधु को पहले उपदेश देने की विधि सीखनी चाहिए पश्चात् धर्म का उपदेश करना चाहिए। इसके विपरीत जो साधु उपदेश की विधि को जाने बिना धर्म का उपदेश करता है वह इस लोक में हानि को प्राप्त करता है और परलोक में भी कर्म बन्ध करके पाप का भागी बनता है । सभा में बैठे हुए पुरुषों की योग्यता को देख कर द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार उपदेश देना चाहिए । सभा में यदि कोई राजा महाराजा बैठा हो और वह अन्यदर्शनी हो तो साधु उसके दर्शन का एकाएक खण्डन करना आरम्भ न कर दे क्योंकि ऐसा करना अविधि है । इससे वह राजा महाराजा कुपित होकर साधु को अपनी इच्छानुसार घोर दण्ड भी दे सकता है। इसलिए जो धर्मोपदेश की विधि को नहीं जानता है उसको मौन रहना ही अच्छा
धर्मोपदेश की विधि का वर्णन करते हुए श्री तीर्थंकर भगवान् ने फरमाया है कि - धर्मोपदेश करने वाले साधु के पास आकर यदि कोई धर्म विषयक प्रश्न करे तो उसके विषय में साधु को विचार करना चाहिए कि यह पुरुष कौन है ? यह मिथ्यादृष्टि है या भद्र स्वभावी ? यह किस अभिप्राय से धर्म पूछ रहा है ? यह किस दर्शन और किस देवता को मानने वाला है ? इत्यादि बातों का निश्चय करने के पश्चात् धर्म का उपदेश करना चाहिए । इस प्रकार द्रव्य क्षेत्र काल भाव का विचार कर जो साधु पुण्यवान् और तुच्छ को समान भाव से उपदेश देता है वह प्रशंसा का पात्र है । वह स्वयं कर्मों से मुक्त कराने में समर्थ होता है।
जो पुरुष कर्मों के घात के उपायों को जानता है और अन्वेषण करता है वह पुरूष कुशल है । ऐसा पुरूष छद्मस्थ पुरूष ज्ञान दर्शन चारित्र सम्पन्न है वह मिथ्यात्व और कषाय के उपशम हो जाने के कारण बद्ध नहीं है और वह कर्म से युक्त होने के कारण मुक्त भी नहीं है । अथवा ऐसा कुशल पुरुष केवली भी हो सकता है क्योंकि चार घाती कर्मों का क्षय कर देने के कारण वह बद्ध नहीं है और भवोपग्राही चार अघाती कर्मों के होचे से वह मुक्त भी नहीं है । इसलिए ऐसा कुशल पुरुष न तो बद्ध है और न मुक्त है ॥ १०२ ॥
से जं च आरभे जं च णारभे, अणारद्धं च ण ... आरभे, छणं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्वसो॥
१०३ ॥ स यच संयमानुष्ठानमारभते यच्च संसारकारणं नाऽऽरभते, तदारब्धव्यमनारब्धव्यं च, अनारब्धं- अनाचीर्णं च नाऽऽरभेत, क्षणं क्षणं - प्रत्येकं हिंसास्थानं परिज्ञाय परिहरेत् यदिवा प्रत्येकम् अवसरं परिज्ञाय तदनुरुपमाचरेदिति । किंञ्च- लोकसंज्ञां - विषयसुखेच्छां परिग्रहसंज्ञा वा सर्वशः परिहरेदिति ॥१०॥
अन्वयार्थ :- से - ते ७५रोत मुशल पु३५ जं - ४ आर्य ३ ॐ अथवा २j छ आरभे - ते ४२ मे च - सने जं-४ 12 नथी. २८ ते ण आरभे - न २j 5थे, च - भने अणारखं - Zacle विशिष्ट भुनियो ४ माय२९नथी
|श्री आचारांग सूत्र 000000000000000000000000000७(१०३)