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भावार्थ :- अज्ञानी जीव समझता है कि - "दुसरे ने जो काम भोगों की चिकित्सा या व्याधि की चिकित्सा अब तक नहीं की है वह में करूँगा" यह समझ कर वह स्वयं प्राणिघात आदि पाप कर्म करता है और दूसरों को भी वैसा ही उपदेश देता है किन्तु इससे उन दोनों का अहित ही होता है। ऐसे अज्ञानी जीवों का संग भी कर्म बन्धन का कारण होता है, अतः उनका संग भी न करना चाहिए । जो प्राणिघातादि रूप पापकारी चिकित्सा न तो स्वयं करता है और न ऐसी चिकित्सा का उपदेश देता है वही संसार के स्वरूप को जानने वाला सच्चा साधु है । उनका संग हितकारी एवं कल्याणकारी होता है ॥ ९५ ॥
षष्ठं उद्देशकः ) नैवमनगारस्य जायते - कल्पत इत्युक्तम् प्रतिपादयिषुराह -
से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावं कम्मं व कुज्जा ण कारवेज्जा ॥ ९६ ॥. सः - अनगारः तत्-प्राण्युपघातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा एता - ज्ञानाद्यपवर्गककारणं संबुध्यमानः आदानीयं - ज्ञानादित्रयं समुत्थाय - आदाय किं कुर्यादित्याहयस्मात् संयमः सर्वसावधनिवृत्तिरूपः तस्मात् पापकर्म-प्राणातिपातायष्टादशप्रकारं नैव कुर्यात् एवकाराच न समनुजानीयात् न कारयेदिति ॥१६॥
... अन्वयार्थ :- तं - प्राणियोनी &िAL द्वा! यित्सिानो उपहेमा५वो अथवा यित्सा ४२वी पर्नु ॥२९॥ ॥ संबुज्झमाणे - समतो मेपो से - ते साधु आयाणीयं - माय भेटले. प्राइ४२१॥ योग्य शान-शन-यारित्रने समुट्ठाय - As रीने तम्हा - संयम ४ छ ते. सर्वसावध निवृत्ति३५ छ भेटले. पावं कम्मं - ५।५ णेव कुज्जा - स्वयं न ४३ भने ण कारवेज्जा - मी पासे ५५ न. ४२पे.
ભાવાર્થ - સમ્યગ જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્રરૂપ મોક્ષમાર્ગમાં રમણ કરવાવાળા અણગાર સ્વયં સાવદ્ય (પાપવાળું) કાર્ય ન કરે, બીજાઓ પાસે ન કરાવે, અને જે કરે છે તેને सारो न माने ॥ ८६॥
भावार्थ :- सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में रमण करने वाला अनगार स्वयं सावध कार्य न करे, दूसरों से भी न करवावे और करते हुए को भला भी न जाने ॥ ९६ ॥ स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमपि ढोकते आहोस्विनेत्याह -
सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अण्णय- . रम्मि, कप्पइ सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुखेण मूढे
( ९४ )COOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO | श्री आचारांग सूत्र