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________________ को अपने हृदय में डाल कर दुःख भोगता है । आशा से केवल दुःख ही प्राप्त होता है परन्तु भोग प्राप्त नहीं होते । कर्मों का परिणाम विचित्र है इसलिए द्रव्यादि द्वारा जिन उपायों से एक मनुष्य को भोग की प्राप्ति होती है उन्हीं उपायों से दूसरे को नहीं भी होती है किन्तु अज्ञानी जीव कर्मों की इस विचित्रता को नहीं समझते । वे धन और स्त्री आदि भोग साधनों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते हैं । वे विषय भोगों में आसक्त होकर अनेक दुःख भोगते हैं और नरक की वेदना को भी भोगते हैं । वहाँ से निकल कर तिर्यञ्च योनि में और फिर नरक गति में जाते हैं । इस प्रकार वे अनन्त काल तक दुःख के चक्र में पड़े रहते हैं । इसलिए जगत् के हित के लिए श्रमण भगवान् महावीरस्वामी ने फरमाया है कि स्त्री संसर्ग से महामोह की उत्पत्ति होती है । इसके समान कोई दूसरा बन्धन नहीं हैं । इसको जीत लेने पर दूसरे विषय सुगमता से जीत लिये जाते हैं । इसलिए विवेकी पुरुष को विषय भोगों में कभी प्रमत्त न बनना चाहिए ॥ ८४ ॥ . ___तदेवं भोगलिप्सूनां तत्प्राप्तावप्राप्तौ च दुःखमेवेति दर्शयति- एयं पास मुणी ! महब्भयं, णाइवाइज्ज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे ण णिविज्जइ आयाणाए, ण मे देइ ण कुपिज्जा, थोवं लटुंण खिसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिज्जासि ॥ ८५ ॥ त्ति बेमि ॥ . __एतत्-कामदशावस्थात्मकं पश्य मुने ! महद्भयं, नातिपातयेत् कंचन, एष-आशाछन्दविवेचको वीरः प्रशंसितः, यो न निर्विद्यते-खिद्यते आदानाय - संयमानुष्ठानाय, भिक्षाटनादि कुर्बन् क्वचिदलाभादौ न मे ददातीति न कुप्येत्, स्तोकं लब्वा न निन्देत्, प्रतिषिद्धः परिणमेत्अपगच्छेत् । एतत् मौनं - प्रवज्याऽनिर्वेदरूपं अदानाऽकोपनं स्तोकाऽजुगुप्सनं प्रतिषिद्वनिवर्तनं च मुनिभावं समनुवासयेः - सम्यग् अनुपालयेति ब्रवीमि ॥८५॥ ...' अन्वयार्थ :- मडीया २.२ मुनिने संबोधीने ४ ॐ ॐ मुणी - हे मुनि ! एयं -- भागोनी. दासा - 54७ २।५वी महब्भयं - महान मयनो हेतु छ, मापातने पास - तभी हेपी, कंचणं - 05 ५९ प्रीनो णाइवाइज्ज - १५ (&िAu) न ४२, एस - भागोनी दालसा न २५ पु३ष वीरे - वार छ भने पसंसिए - हेवो द्वा२॥ ५४॥ तेनी प्रशंसा ४२॥य छ, जे - आयाणाए -संयमथी. ण णिविज्जइ - नथी. ता ते Y३५ श्रेष्ठ छे, म गठस्थ मे - भने ण - नथी देइ - भापता, ण कुप्पिज्जा - मा । श्री आचारांग सूत्र 9900000000000000000000000000७( ८१
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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