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'श्री दशकालिकसूत्र भाषांतर
प्रस्तुत वृत्ति में अनेक प्राकृतकथानक व प्राकृत संस्कृत भाषा के उद्धरण भी आये हैं। दार्शनिक चिन्तन भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। आचार्य श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी संविग्न-पाक्षिक थे। वह काल चैत्यवास के उत्कर्ष का काल था। चैत्यवासी और संविग्न-पक्ष में परस्पर संघर्ष की स्थिति थी। चैत्यवासियों के पास पस्तकों का संग्रह था। संविग्न-पक्ष के पास प्रायः पुस्तकों का अभाव था। चैत्यवासी उनको पुस्तकें नहीं देते थे। वे तो संविग्न-पक्ष को मिटाने पर तुले हुए थे, यही कारण है कि आचार्य श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी को अपनी वृत्ति लिखते समय अगस्त्यसिंह चूर्णि आदि उपलब्ध न हुई हो। यदि उपलब्ध हुई होती तो वे उनका अवश्य ही संकेत करते।
- आचार्य हरिभद्र सूरीश्वरजी के पश्चात् अपराजितसूरि ने दशवकालिक पर एक वृत्ति लिखी, जो वृत्ति 'विजयोदया' नाम से प्रसिद्ध है। अपराजितसूरि यापनीय संघ के थे। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। उन्होंने अपने द्वारा रचित आराधना की टीका में इस बात का उल्लेख किया है। यह टीका उपलब्ध नहीं है। आचार्य हरिभद्र सूरीश्वरजी की टीका का अनुसरण करके तिलकाचार्य ने भी टीका लिखी है। इनका समय १३ वी-१४वीं शताब्दी है। माणिक्यशेखर सूरिजी ने दशवैकालिक पर नियुक्तिदीपिका लिखी है। माणिक्यशेखर सूरिजी का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है। समयसुन्दरजी ने दशवैकालिक पर दीपिका लिखी है। इनका समय विक्रम संवत् १६११ से १६८१ तक है। विनयहंसजी ने दशवैकालिक पर वृत्ति लिखी है, इनका समय विक्रम संवत् १५७३ है। रामचन्द्रसूरिजी ने दशवकालिक पर वार्तिक लिखा है, इनका समय विक्रम संवत् १६७८ है। इसी प्रकार शान्तिदेवसूरिजी, सोमविमलसूरिजी, राजचन्द्रजी, पारसचन्द्रजी, ज्ञानसागरजी प्रभृति मनीषियों ने भी दशवैकालिक पर टीकाएँ लिखी हैं। पायचन्द्रसूरिजी और धर्मसिंह मुनिजी, जिनका समय विक्रम की १८ वीं शताब्दी है, ने गुजराती-राजस्थानी मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा। टब्बे में टीकाओं की तरह नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। इस प्रकार समय-समय पर दशवकालिक पर आचार्यों ने विराट् व्याख्या साहित्य लिखा है। पर यह सत्य है कि अगस्त्यसिंह स्थविर विरचित चूर्णि, जिनदासगणी महत्तर विरचित चूर्णि और आचार्य हरिभद्रसूरिजी विरचित वृत्ति इन तीनों का व्याख्यासाहित्य में विशिष्ट स्थान है। परवर्ती विज्ञों ने अपनी वृत्तियों में इनके मौलिक चिन्तन का उपयोग किया है। टब्बे के पश्चात् अनुवाद युग का प्रारम्भ हुआ। आचार्य अमोलकऋषिजी ने दशवकालिक का हिन्दी अनवाद लिखा। उसके बाद अनेक विज्ञों के हिन्दी अनुवाद प्रकाश में आए। इसी तरह गजराती और अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हए तथा आचार्य आत्मारामजी महाराज ने दशवकालिक पर हिन्दी में विस्तृत टी यह टीका मूल के अर्थ को स्पष्ट करने में सक्षम है। अनुसंधान-युग में आचार्य तुलसी के नेतृत्व में मुनि नथमलजी ने 'दसवेआलियं' ग्रन्थ तैयार किया, जिसमें मूल पाठ के साथ विषय को स्पष्ट करने के लिए शोधप्रधान टिप्पण दिए गये हैं। इस प्रकार अतीत से वर्तमान तक दशवकालिक पर व्याख्याएँ और विवेचन लिखा गया है, जो इस आगम की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण है। - प्राचीन युग में मुद्रण का अभाव था इसलिए ताड़पत्र या कागज पर आगमों का लेखन होता रहा। मुद्रण युग प्रारम्भ होने पर आगमों का मुद्रण प्रारम्भ हुआ। सर्व प्रथम सन् १९०० में श्री हरिभद्र सूरिजी और समयसुन्दरजी की वृत्ति के साथ दशवकालिक का प्रकाशन भीमसी माणेक बम्बई ने किया। उसके पश्चात् सन् १९०५ में दशवैकालिक दीपिका का प्रकाशन हीरालाल हंसराज (जामनगर) ने किया। सन् १९१५ में समयसुन्दर विहित वृत्ति सहित दशवकालिक का प्रकाशन हीरालाल हंसराज (जामनगर) ने करवाया। सन् १९११ में समयसुन्दर विहित वृत्ति सहित दशवैकालिक का प्रकाशन जिनयशसूरि ग्रन्थमाला खम्भात से हुआ। सन् १९१८ में भद्रबाहु स्वामी कृत नियुक्ति तथा हरिभद्रीया वृत्ति के साथ दशवकालिक का प्रकाशन देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई ने किया। नियुक्ति तथा हरिभद्रीयावृत्ति के साथ विक्रम संवत् १९९९ में मनसुखलाल हीरालाल बम्बई ने दशवैकालिक