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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
में स्वर्णिम युग के रूप में विश्रुत है। नियुक्ति साहित्य में आगमों के शब्दों की व्याख्या और व्युत्पत्ति है। भाष्य साहित्य में आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है। चूर्णि साहित्य में निगूढ़ भावों को लोककथाओं तथा ऐतिहासिक वृत्तों के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीकासाहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य का अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है और साथ ही नये हेतुओं का भी उपयोग किया है। टीकाएँ संक्षिप्त और विस्तृत दोनों प्रकार की हैं। टीकाओं के विविध नामों का प्रयोग भी आचार्यों ने किया है; जैसे - टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पणक, पर्याय, स्तबक, पीठिका, अक्षरार्द्ध ।
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इन टीकाओं में केवल आगमिक तत्त्वों पर ही विवेचन नहीं हुआ अपितु उस युग की सामाजिक, सांस्कृति और भौगोलिक परिस्थितियों का भी इनसे सम्यक् परिज्ञान जाता है। संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरीश्वरजी का नाम सर्वप्रथम है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनका सत्ता- समय विक्रम संवत् ७५७ से ८२८ है। प्रभावकचरित्रे के अनुसार उनके दीक्षागुरु आचार्य जिनभट थे किन्तु स्वयं आचार्य हरिभद्र ने उनका गच्छपति गुरु के रूप में उल्लेख किया है और जिनदत्त को दीक्षागुरु माना है । १७८ याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थीं, उनका कुल विद्याधर था। उन्होंने अनेक आगमों पर टीकाएं लिखी हैं, वर्तमान में ये आगमटीकाएं प्रकाशित हो चूकी हैं – नन्दीवृत्ति, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, आवश्यकवृत्ति और दशवैकालिकवृत्ति ।
दशवैकालिकवृत्ति के निर्माण का मूल आधार दशवैकालिकनियुक्ति है। शिष्यबोधिनीवृत्ति या बृहद्वृत्ति ये दो नाम इस वृत्ति के उपलब्ध हैं। वृत्ति के प्रारम्भ में दशवैकालिक का निर्माण कैसे हुआ ? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य शय्यम्भव का जीवनवृत्त दिया है। तप के वर्णन में आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान का निरूपण किया गया है। अनेक प्रकार के श्रोता होते हैं, उनकी दृष्टि से प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण विभिन्न अवयवों की उपयोगिता, उनके दोषों की शुद्धि का प्रतिपादन किया है।
द्वितीय अध्ययन की वृत्ति में श्रमण, पूर्व, काम, पद आदि शब्दों पर चिन्तन करते हुए तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इन्द्रियां, पांच स्थावर, दस श्रमण धर्म, अठारह शीलांगसहस्र का निरूपण किया गया है। तृतीय अध्ययन की वृत्ति में महत्, क्षुल्लक पदों की व्याख्या है। पांच आचार, चार कथाओं का उदाहरण सहित विवेचन है।
चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में जीव के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। पांच महाव्रत, छठा रात्रिभोजन विरमणव्रत, श्रमणधर्म की दुर्लभता का चित्रण है । पञ्चम अध्ययन की वृत्ति में आहारविषयक विवेचन है। छठे अध्ययन की वृत्ति में व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभा वर्जन, इन अष्टादश स्थानों का निरूपण है, जिनके परिज्ञान से ही श्रमण अपने आचार का निर्दोष पालन कर सकता है। सातवें अध्ययन की व्याख्या में भाषाशुद्धि पर चिन्तन किया है। आठवें अध्ययन की व्याख्या में आचार में प्रणिधि की प्रक्रिया और उसके फल पर प्रकाश डाला है। नौवें अध्ययन में विनय के विविध प्रकार और उससे होने वाले फल का प्रतिपादन किया है। दसवें अध्ययन की वृत्ति में सुभिक्षु का स्वरूप बताया है। चूलिकाओं में भी धर्म के रतिजनक, अरतिजनक कारणों पर प्रकाश डाला गया है।
१७८ सिताम्बराचार्यजिन भटनिगदानुसारणिो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः अल्पमतेः आचार्यहरिभद्रस्य । - आवश्यकनियुक्ति टीका का अन्त