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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
(३) वे नियुक्तियां, जिन्हें आजकल भाष्य या बृहद् भाष्य कहते हैं। जिनमें मूल और भाष्य का इतना अधिक सम्मिश्रण हो गया है कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियां ।
प्रस्तुत विभाग वर्तमान में जो नियुक्तिसाहित्य प्राप्त है, उसके आधार पर किया गया है।
जैसे जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीजी ने नियुक्तियां लिखीं; उसी प्रकार यास्क महर्षि ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए निघण्टु भाष्य रूप निरुक्त लिखा । नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु का समय विक्रम संवत् ५६२ के लगभग है और नियुक्तियों का समय ५०० से ६०० (वि. स.) के मध्य का है। दस आगमों पर नियुक्तियां लिखी गयी, उनमें एक नियुक्ति दशवैकालिक पर भी है। डॉ. घाटके के अभिमतानुसार ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति क्रमशः दशवैकालिकनियुक्ति और आवश्यकनियुक्ति की उपशाखाएँ हैं। पर डॉ. घाटके की बात से सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य श्री मलयगिरिजी सहमत नहीं हैं। उनके मंतव्यानुसार पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक अंश है। यह बात उन्होंने पिण्डनियुक्ति की टीका में स्पष्ट की है। आचार्य श्री मलयगिरिजी दशवैकालिकनियुक्ति को चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृति मानते हैं, किन्तु पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर वह नियुक्ति बहुत ही विस्तृत हो गयी, जिससे पिण्डनियुक्ति को स्वतंत्र नियुक्ति के रूप में स्थान दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग है। आचार्य श्री मलयगिरिजी ने इस सम्बन्ध में अपना तर्क दिया है - पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति के अन्तर्गत होने के कारण ही इस ग्रन्थ के आदि में नमस्कार नहीं किया गया है और दशवैकालिकनियुक्ति के कै मूल आदि में नियुक्तिकार ने नमस्कारपूर्वक ग्रन्थ को प्रारम्भ किया है। १५८
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दशवैकालिकनियुक्ति में सर्वप्रथम दश शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हुआ है और काल का प्रयोग इसलिए हुआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हुई जब पौरुषी व्यतीत हो चूकी थी, अपराह्न का समय हो चूका था। प्रथम अध्ययन का नाम 'द्रुमपुष्पिका' का है। इसमें धर्म की प्रशंसा करते हुए उसके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद बताये हैं। लौकिकधर्म के ग्रामधर्म, देशधर्म, राजधर्म प्रभृति अनेक भेद किये हैं। लोकोत्तर धर्म के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दो विभाग हैं। श्रुतधर्म स्वाध्याय रूप है और चारित्रधर्म श्रमणधर्म रूप है। अहिंसा, संयम और तप की सुन्दर परिभाषा दी गयी है। प्रतिज्ञा, हेतु, विभक्ति, विपक्ष, प्रतिबोध, दृष्यन्त, आशंका, तत्प्रतिषेध, निगमन इन दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया है। १५९
द्वितीय अध्ययन के प्रारम्भ में श्रामण्य-पूर्वक की निक्षेप पद्धति से व्याख्या है। श्रामण्य का निक्षेप चार प्रकार से किया गया है - १. नाम श्रमण, २. स्थापना श्रमण, ३. द्रव्यश्रमण और ४. भाव श्रमण।
भाव श्रमण की संक्षेप में और सारगर्भित व्याख्या की गयी है। १६० श्रमण के प्रव्रजित, अनगार, पाषंडी, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्यमुनि, क्षान्तदान्त, विरत, रूक्ष, तीरार्थी ये पर्यायवाची नाम हैं। पूर्व के निक्षेप की दृष्टि से तेरह प्रकार हैं - १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल, १५८ दशवैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययन निर्युक्तिरतिप्रभृतग्रन्थत्वात् पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता तस्याश्च पिण्डनिर्युक्तिरिति नामकृतं नमस्कारोऽपि न कृतो दशवैकालिकनिर्युक्त्यन्तरगतत्वेन शेषा तु निर्युक्तिर्दशवैकालिकनिर्युक्तिरिति स्थापिता । १५९ दशवैकालिक गाथा १३७ - १४८
अतएव चादावत्र
१६० दशवैकालिक गाथा १५२ - १५७