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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भलीभांति समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है।
- वह भिक्षु है ।
धम्मपद में भिक्षु के लक्षण निम्न गाथा में आए
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चक्खुना संवरो साधु साधु सोतेन संवरो । घाणेन संवरो साधु साधु जिह्वाय संवरो ॥। कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो । मनसा संवरो साधु साधु सब्बत्थ संवरो । सब्बत्थ संवुतो भिक्खु सब्बदुक्खा पमुच्चति । हत्थसंयतो पादसंयतो वाचाय संयतो संयतुत्तमो । अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खु ।।
धम्मपद २५/१-२-३
इस प्रकार दशवैकालिक सूत्र में आयी हुई गाथाएँ कहीं पर भावों की दृष्टि से तो कहीं विषय की दृष्टि से और कहीं पर भाषा की दृष्टि से वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी समानता से मिलती हैं। कितनी ही गाथाएँ आचारांग चूलिका के साथ विषय और शब्दों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य रखती हैं। उनका कोई एक ही स्त्रोत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त दशवैकालिक की अनेक गाथाएं अन्य जैनागमों में आयी हुई गाथाओं के साथ मिलती हैं। पर हमने विस्तारभय से उनकी तुलना नहीं दी है। समन्वय की दृष्टि से जब हम गहराई से अवगाहन करते हैं तो ज्ञान होता है - अनन्त सत्य को व्यक्त करने में चिन्तकों का अनेक विषयों में एकमत रहा है। व्याख्या साहित्य
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दशवैकालिक पर आज तक जितना भी व्याख्या साहित्य लिखा गया है, उस साहित्य को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है - नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, संस्कृतटीका, लोकभाषा में टब्बा और आधुनिक शैली से संपादन। निर्युक्ति प्राकृत भाषा में पद्य-बद्ध टीकाएं हैं, जिनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद की व्याख्या न करके मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गयी है। नियुक्ति की व्याख्याशैली निक्षेप पद्धति पर आधृत है। एक पद ' के जितने भी अर्थ होते हैं उन्हें बताकर जो अर्थ ग्राह्य है उसकी व्याख्या की गयी है और साथ ही अप्रस्तुत का निरसन भी किया गया है। यों कह सकते हैं -सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या निर्युक्त है । १५५ सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान शर्पेन्टियर ने लिखा है – नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इन्डेक्स का काम करती हैं, ये सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। १५६ डॉ. घाटके ने नियुक्तियों को तीन विभागों में विभक्त किया है१५७
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(१) मूल-निर्युक्तियाँ – जिन नियुक्तियों पर काल का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और उनमें अन्य कुछ भी . मिश्रण नहीं हुआ, जैसे – आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियां ।
१५५ सूत्रार्थयोः परस्परं नियोजनं सम्बन्धनं निर्युक्तिः ।
१५६ उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१
१५७ Indian Historical Quarterly, Vol. 12 p. 270
(२) जिनमें मूलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया है तथापि वे व्यवच्छेद्य ही हैं, जैसे – दशवैकालिक और आवश्यक सूत्र की नियुक्तियां ।
- आवश्यकनिर्युक्ति, गा. ८३