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श्री दशकालिकसूत्र भाषांतर
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होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावर जे स भिक्खू।। - दशवैकालिक १०८ पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर, यह कल या परसों काम आयगा, इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है वह भिक्षु है। सुत्तनिपात में यही बात इस रूप में झंकृत हुई है -
अन्नानमथो पानानं, खादनीयानमथोऽपि वत्थान।
लद्धा न सन्निधि कयिरा, न च परित्तसेतानि अलभमानो॥ – सुत्तनिपात ५२-१० दशवैकालिक सूत्र के दशवें अध्ययन की दसवीं गाथा में भिक्षु की जीवनचर्या का महत्त्व बताते हुए कहा
है
न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते।
संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू।। - दशवैकालिक १०/१० .. जो कलहकारी कथा नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्रुवयोगी है, जो उपशान्त है, जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता – वह भिक्षु है। . भिक्षु को शिक्षा देते हुए सुत्तनिपात में प्रायः यही शब्द कहे गए हैं – (सुत्तनिपात, तुवटक सुत्तं ५२।१६)
न च कत्थिता सिया भिक्खू, न च वाचं पयुतं भासेय्य।
पागब्भियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य॥ . भिक्षु धर्मरत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ लिखा है - कलह की बात न करे। धर्मानन्द कौसम्बी ने अर्थ किया कि भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दशवकालिक के दसवें अध्ययन की ग्यारहवीं गाथा में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार की गयी है -
जो सहइ हु गामकंटए अक्कोसपहारतज्जणाओ या
भयभेरवसहसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु।। - दशवकालिक १०।११ जो कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है - वह भिक्षु है। सुत्तनिपात की निम्न गाथाओं से तुलना करें -
भिक्खुनो विजिगुच्छतो, भजतो रित्तमासनं। रुक्खमूलं सुसानं वा, पब्बतानं गुहासु वा।। उच्चावचेसु सयनेसु कीवन्तो तत्थ भेरवा।
येहि भिक्खु न वेधेय्य निग्घोसे सयनासने॥ -सुत्तनिपात ५४।४-५ दशवकालिक के दसवें अध्ययन की १५वीं गाथा है -
हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहियप्पा सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू॥ - दशवकालिक १०/१५