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काले निक्खमणा साधु, नाकाले साधु निक्खमो। अकाले नहि निक्खम्म, एककंपि बहूजनो ।।
- कौशिक जातक २२६
साधु काल से निकले, बिना काल के नहीं निकले। अकाल में तो निकलना ही नहीं चाहिए, चाहे अकेला हो या बहुतों के साथ हो।
दशवैकालिक के छ अध्ययन की दसवीं गाथा है
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सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, इसलिए प्राणिवध घोर पाप का कारण है अतः निर्ग्रन्थ उसका परिहार करते हैं।
यही स्वरसंयुत्तनिकाय में इस रूप में झंकृत हुआ
है
श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
सव्वा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि । एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो ॥।
दशवैकालिक के आठवें अध्ययन में क्रोध को शान्त करने का उपाय बताते 'उवसमेण हणे कोहं' - उपशम से क्रोध का हनन करो। तुलना कीजिए 'धम्मपद' क्रोध वर्ग के निम्न पद से
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'अक्कोधेन जिते कोधं' – अक्रोध से क्रोध को जीतो ।
- धम्मपद, क्रोधवर्ग, ३ दशवैकालिक के नौवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की प्रथम गाथा में बताया है कि जो शिष्य कषाय व प्रमाद के वशीभूत होकर गुरु के सन्निकट शिक्षा ग्रहण नहीं करता, उसका अविनय उसके लिए घातक होता है
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थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कीयस्स वहाय होइ ।।
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यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं । पटिक्कोसति दुम्मेधो दिट्ठि निस्साय पापिकं । । फलानि कट्ठकस्सेव अत्यञ्च फुल्लति ।।
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- संयुत्तनिकाय ११३१८
हुए कहा है। दशवैकालिक ८1३८
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- दशवैकालिक ९1१1१
जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके विनाश के लिए होती है। जैसे कीचक (बांस) का फल उसके विनाश के लिए होता है, अर्थात् - हवा से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं, वह फल लगने पर सूख जाता है।
धम्मपद में यही उपमा इस प्रकार आयी है
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धम्मपद १२/८
जो दुर्बुद्धि मनुष्य पापमयी दृष्टि का आश्रय लेकर अरहन्तों तथा धर्मनिष्ठ आर्य पुरुषों के शासन की अवहेलना करता है, वह आत्मघात के लिए बांस के फल की तरह प्रफुल्लित होता है।
दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की आठवीं गाथा में भिक्षु के जीवन की परिभाषा इस प्रकार दी है - तहेव असणं पाणगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता ।