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श्री दरावैकालिकसूत्र भाषांतर
दशवैकालिक के द्वितीय अध्ययन का सातवां श्लोक इस प्रकार है.
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धिरत्थु ते जसोकामी जो तं जीवियकारणा। वन्तं इच्छसि आवेडं सेयं ते मरणं भवे ॥
हे यशःकामिन्! धिक्कार है तुझे ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता . है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है।
तुलना कीजिए.
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धिरत्थु तं विसं वन्तं यमहं जीवितकारणा ।
वन्ते पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीवितां वरं ।।
उप
- विसवन्त जातक ६९, प्रथम खण्ड, पृ. ४०४
धिक्कार है उस जीवन को, जिस जीवन की रक्षा के लिए एक बार उगल कर मैं फिर निगलूं। ऐसे जीवन
से मरना अच्छा है।
दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन की दूसरी और तीसरी गाथा निम्नानुसार हैं
उद्देसियं कीयगडं नियागमभिहडाणि य ।
राइभत्ते सिणाणे य गंधमल्ले य वीयणे ।।
सन्निहो गिहिमत्ते य रायपिंडे किमिच्छए ।
संबाहणा दंतपहोयणाय संपुच्छणा देहपलोयणा य ॥
निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया, खरीदा गया, आदरपूर्वक निमन्त्रित कर दिया जाने वाला, निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया हुआ भोजन, रात्रिभोजन, स्नान, गंध द्रव्य का विलेपन, माला पहनना, पंखा झलना, खाद्य वस्तु का संग्रह करना, रात वासी रखना, गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा ग्रहण करना, अंगमर्दन करना, दांत पखारना, गृहस्थ की कुशल पूछना, दर्पण निहारना ये कार्य निर्ग्रन्थ श्रमण
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के लिए वर्ज्य हैं।
उपरोक्त गाथा की तुलना श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के अध्ययन १८ के श्लोक ३ से कर सकते
केश- रोम-नख- श्मश्रु- मलानि बिभृयादतः ।
न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः ।। ११।१८।३
केश, रोएँ, नख और मूँछ-दादी, रूप शरीर के मल को हटावे नहीं । दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान न करे और धरती पर ही पड़ा रहे। यह विधान वानप्रस्थों के लिए है।
इसी प्रकार दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन की नवम गाथा की तुलना भागवत के सातवें स्कन्ध के बारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक से कीजिए -
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धूवणेति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे ।
अंजणे दंतवणे य, गायब्भंग विभूसराणे ॥ -
दशवैकालिक ३/९
धूम्रपान की नलिका रखना, , रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए