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यम्हि सच्चं च धम्मो च अहिंसा संयमो दमो। स वे वन्तमलो धीरो सो थेरो ति पवुच्चति ।।
सत्य,
जिसमें धर्म, अहिंसा, संयम और दम है, वह मलरहित धीर भिक्षु स्थविर कहलाता है। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की दूसरी गाथा की तुलना धम्मपद (पुप्फवग्गो ४ । ६ ) से की जा सकती
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं ।
नय पुष्पं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥ - - दशवैकालिक १/२
जिस प्रकार भ्रमरद्रुम-पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है।
तुलना करें -
यथापि भंमरो पुप्फं वण्णगन्धं अहेठयं । पति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे ॥
श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
धम्मपद (पुप्फवग्गो ४/६ )
जैसे फूल या फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुंचाए भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गांव में विचरण करे ।
मधुकर - वृत्ति की अभिव्यक्ति महाभारत में भी इस प्रकार हुई है
यथा मधुं समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया ।।
दशवैकालिक के द्वितीय अध्ययन की प्रथम गाथा है
- महाभारत ३४ / १७
जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनका मधु ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिए बिना ही कर के रूप में उनसे धन ग्रहण करे।
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कहं नु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए । प पर विसीयंतो संकपस्स वसं गओ |
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वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है।
इसी प्रकार के भाव बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ संयुत्तनिकाय के निम्न श्लोक में परिलक्षित होते है
दुक्करं दुत्तितिक्खञ्च अव्यत्तेन हि सामञ्चं ।
बहूहि तत्थ सम्बाधा यत्थ बालो विसीदतोति।
कति चरेय्य सामन्नं, चित्तं चे न निवारए । पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानुगो ।।
— संयुत्तनिकाय १।१७
कितने दिनों तक वह श्रमण भाव को पालन कर सकेगा, यदि उसका चित्त वश में नहीं हो तो, जो इच्छाओं के आधीन रहता है वह कदम-कदम पर फिसल जाता है।