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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
है । १५४ भाव के साथ द्रव्य का कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। द्रव्य और भाव कायोत्सर्ग के स्वरूप को समझाने के लिए कायोत्सर्ग के प्रकारान्तर से चार रूप बताए हैं।
१. उत्थित - उत्थित - . जब कायोत्सर्ग के लिए साधक खड़ा होता है, तब द्रव्य के साथ भाव से भी खड़ा होता है। इस कायोत्सर्ग में प्रसुप्त आत्मा जागृत होकर कर्मों को नष्ट करने के लिए खड़ी हो जाती है। यह उत्कृष्ट कायोत्सर्ग है।
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२. उत्थित - निविष्ट - जो साधक अयोग्य है, वह शरीर से तो कायोत्सर्ग के लिए खड़ा हो जाता है पर भावों में विशुद्धि न होने से उसकी आत्मा बैठी रहती है।
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३. उपविष्ट-उत्थित • जो साधक रुग्ण है, तपस्वी है या वृद्ध है, वह शारीरिक असुविधा के कारण खड़ा नहीं हो पाता, वह बैठकर ही धर्मध्यान में लीन होता है। वह शरीर से बैठा है किन्तु आत्मा खड़ा ४. उपविष्ट - निविष्ट • जो आलसी साधक कायोत्सर्ग करने के लिए खड़ा न होकर बैठा रहता है और कायोत्सर्ग में उसके अन्तर्मानस में आर्त्त और रौद्र ध्यान चलता रहता है, वह तन से भी बैठा हुआ और भावना से भी। यह कायोत्सर्ग न होकर कायोत्सर्ग का दिखावा है।
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चूलिका के अन्त में साधक को यह आदेश दिया गया है कि वह आत्मरक्षा का सतत ध्यान रखे। आत्मा की रक्षा के लिए देह का रक्षण आवश्यक है। वह देह रक्षण संयम है। आत्मा के सद्गुणों का हननकर जो देह रक्षण किया जाता है वह साधक को इष्ट नहीं होता, अतः सतत आत्मरक्षा की प्रेरणा दी गयी है । दशवैकालिक में प्रारंभ से लेकर अन्त तक यही शिक्षा विविध प्रकार से व्यक्त की गयी है। बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होना ही आत्मरक्षा है। तुलनात्मक अध्ययन
भारतीय संस्कृति में जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों धाराओं का अद्भुत सम्मिश्रण है। ये तीनों धाराएं भारत की पुण्य-धरा पर पनपी हैं। इन तीनों धाराओं में परस्पर अनेक बातों में समानता रही है तो अनेक बातों में भिन्नता भी रही है। तीनों धाराओं के विशिष्ट साधकों की अनुभूतियां समान थीं तो अनेक अनुभूतियां परस्पर विरुद्ध भी थीं। कितनी ही अनुभूतियों का परस्पर विनिमय भी हुआ है। एक ही धरती से जन्म लेने के कारण तथा परस्पर साथ रहने के कारण एक के चिन्तन का दूसरे पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । सत्य की जो सहज अनुभूति है उसने जो अभिव्यक्ति का रूप ग्रहण किया, वह प्रायः कभी शब्दों में और कभी अर्थ में एक सदृश रहा है। उसी को हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर रहे हैं। 'सौ सयाना एक मता' के अनुसार सौ समझदारों का एक ही मत होता है - सत्य को व्यक्त करने में समान भाव और भाषा का होना स्वाभाविक है।
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दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा है.
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धम्मो मंगलमुक्कटं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो ।।
धर्म उत्कृष्ट मंगल है, अहिंसा, संयम और तप धर्म के लक्षण हैं, जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं।
इस गाथा की तुलना करें -धम्मपद (धम्मट्ठवग्गो १९१६ ) के इस श्लोक से
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१५४ काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं । - उत्तराध्ययन २६ ॥४९