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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
कि इस चूंलिका में जो अठारह स्थान प्रतिपादित हैं, वे उसी प्रकार हैं - जैसे घोड़े के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकश, नौका के लिए पताका है। इस के वाक्य साधक के अन्तर्मानस में संयम के प्रति रति समुत्पन्न करते हैं. जिसके कारण इस इस अध्ययन का नाम रतिवाक्या रखा गया है।१३९
___ इस अध्ययन में साधक को साधना में स्थिर करने हेतु अठारह सूत्र दिए हैं। वे सूत्र साधक को साधना में स्थिर कर सकते हैं। गृहस्थाश्रम में विविध प्रकार की कठिनाइयां हैं, उन कठिनाइयों को पार करना सहज नहीं है। मानव कामभोगों में आसक्त होता है और सोचता है कि इनमें सच्चा सुख रहा हुआ है, पर वे काम-भोग अल्पकालीन और साररहित हैं। उस क्षणिक सुख के पीछे दुःख की काली निशा रही हुई है। संयम के विराट् आनन्द को छोड़कर यदि कोई साधक पुनः गृहस्थाश्रम को प्राप्त करने की इच्छा करता है तो वह वमन कर पुनः उसे चाटने के सदृश है। संयमी जीवन का आनन्द स्वर्ग के रंगीन सुखों की तरह है, जबकि असंयमी जीवन का कष्ट नरक की दारुण वेदना की तरह है। गृहस्थाश्रम में अनेक क्लेश हैं, जबकि श्रमण जीवन क्लेशरहित है। इस प्रकार इस अध्ययन में विविध दृष्टियों से संयमी जीवन का महत्त्व प्रतिपादित है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में गृहस्थाश्रम को महत्त्व दिया गया है। आपस्तंभ धर्मसूत्र में गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ आश्रम कहा है। मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि अग्निहोत्र आदि अनुष्ठान करने वाला गृहस्थ ही सर्वश्रेष्ठ है।१४० वही तीन आश्रमों का पालन करता है। महाभारत में भी गृही के आश्रम को ज्येष्ठ कहा है।१४१ किन्तु श्रमण-संस्कृति में श्रमण का महत्त्व है। वहाँ पर आश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई चिन्तन नहीं है। यदि कोई साधक गहस्थाश्रम में रहता भी है तो उसके अन्तर्मानस में यह विचार सदा रहते हैं कि कब मैं श्रमण बन; वह दिन कब आयगा, जब मैं श्रमण धर्म को स्वीकारकर अपने जीवन को पावन बनाऊंगा! उत्तराध्ययन सूत्र में छभवेशधारी इन्द्र और नमि राजर्षि का मधुर संवाद है। इन्द्र ने राजर्षि से कहा - आप यज्ञ करें, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन करायें, उदार मन से दान दें और उसके पश्चात् श्रमण बनें। प्रत्युत्तर में राजर्षि ने कहा - जो मानव प्रतिमास दस लाख गायें दान में देता है, उसके लिए भी संयम श्रेष्ठ है अर्थात् दस लाख गायों के दान से भी श्रमणधर्म का पालन करना अधिक श्रेष्ठ है। उसी श्रमण जीवन की महत्ता का यहाँ चित्रण है। इसलिए गृहवास बन्धन स्वरूप है और संयम मोक्ष का पर्याय बताया गया है।४२ जो साधक दृढ़प्रतिज्ञ होगा वह देह का परित्याग कर देगा किन्तु धर्म का परित्याग नहीं करेगा। महावायु
तीव्र प्रभाव भी क्या सुमेरु पर्वत को विचलित कर सकता है? नहीं! वैसे ही साधक भी विचलित नहीं होता। वह तीन गप्तियों से गप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ग्रहण करता है। गुप्ति : एक विवेचन
". जैन परम्परा में तीन गुप्तियों का विधान है। गुप्ति शब्द गोपन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसका तात्पर्य है - खींच लेना, दूर कर लेना, मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना। गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढकनेवाला या रक्षाकवच है। अर्थात् आत्मा की अशुभ प्रवृत्तियों से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्तियाँ तीन हैं -मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति। मन को अप्रशस्त, कुत्सित और अशुभ विचारों से दूर रखना, संरम्भ समारम्भ और आरम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है।१४३ असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा १३९ दशवैकालिक हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २८० १४० मनुस्मृति ६।८९ १४१ ज्येष्ठाश्रमो गृही। --- महाभारत, शान्तिपर्व, २३५ १४२ बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए।। --- दशवैकालिक चूलिका प्रथम, १२ १४३ उत्तराध्ययन २४।२